Saturday, March 16, 2013

वकीलों की जीत के मायने


सरकार जब विभिन्न समूहों के दबाव में आकर जायज-नाजायज मांगें मानने लगी है तो वकीलों की मांगों को वह किस आधार पर नाजायज ठहरा सकेगी। दबाव बना सकने वाला हर समूह जब अपनी बातें मनवाने में सफल हो जाता है तो अब यह मुद्दा ही नहीं रहा कि किसकी मांगें जायज और किसकी नाजायज हैं। कौन कितनी भीड़ इकट्ठी कर सकता है और कौन कितने वोटों को भ्रमित कर इधर-उधर कर सकता है? कौन कितनी हिंसा करवाने में सफल हो सकता है, कौन कितनी सार्वजनिक सेवाओं में बाधा डाल सकता है? जायज के मानक यही मान लिए गये हैं और सरकारें झुकने भी लगी हैं तो कानून के पहरुए वकील भी क्यों इस रास्ते पर चलें।
उक्त उद्धरण विनायक के इसी 8 मार्च के उस सम्पादकीय का हिस्सा है जिसे 6 मार्च को विधानसभा पर वकीलों के प्रदर्शन के बाद लिखा गया था। कल देर रात मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वकीलों की केवल लगभग सभी मांगें मान ली बल्कि जयपुर पुलिस कमिश्नर सहित कमिश्नरेट के कई अधिकारियों को तत्काल हटा भी दिया।
ये वही अशोक गहलोत हैं जिनके पिछले कार्यकाल की एक दृढ़ता का जिक्र बहुत होता था। गहलोत के पिछले कार्यकाल में राजस्थान के एक स्थापित अखबार समूह और पड़ोसी राज्य से आए एक अन्य अखबार समूह की आपसी प्रतिस्पर्धा लगभग गैंगवार में तबदील होने को थी। दोनों समूहों के बीच लगभग रोजाना बदमजगियां पेश आने लगीं। कहते हैं एक देर रात सूबे में स्थापित अखबार के नुमाइन्दे कुछ गलत करते आगन्तुक अखबार समूह के नुमाइन्दों द्वारा धरे गये तो आगन्तुक अखबार के मालिक उस दिन जयपुर में ही थे और देर रात ही उन्होंने क्षेत्र के पुलिस अधीक्षक से लगभग आदेश की मुद्रा में अपने हिसाब से कार्यवाही करवानी चाही। एसपी दबाव में नहीं आये तो वे देर रात मुख्यमंत्री निवास पहुंच गये और मुख्यमंत्री से तत्काल एसपी को हटाने को कहा। कहा जाता है कि एसपी बहुत कर्मठ और साफ छवि वाले थे। दूसरा, मुख्यमंत्री को आगन्तुक अखबार समूह के मालिक का रवैया भी जंचा होगा तो तत्काल कुछ करने से मना कर दिया। अखबार समूह के मालिक तमतमाये हुए चले गये और उसके बाद लगभग पन्द्रह-बीस दिनों तक पाठकों ने देखा कि उस नये अखबार में, अचानक मुख्यमंत्री के खिलाब रोजाना लीड स्टोरियां आने लगी। मुख्यमंत्री डिगे नहीं। उक्त घटनाक्रम महाभारत के संजय का बताया तो है नहीं, लेकिन लगभग इसी तरह की बातें तब चर्चा में थी, बाकाडाक में हो जाने वाले जुड़ाव-घटाव की संभावना इसमें भी हो सकती है।
लेकिन वही अशोक गहलोत वकीलों के सामने इस तरह दण्डवत हो जायेंगे, उम्मीद नहीं थी। क्या यह आगामी चुनावों का अतिरंजित दबाव है या गहलोत के स्वभाव में कोई बड़ा परिवर्तन गया है। यद्यपि पुलिस महकमा भी दूध का धुला नहीं है, प्रभावी समाज की छाया उसमें भी प्रतिबिम्बित होती ही है बल्कि ज्यादा वीभत्स तरीके से होती होगी। पुलिस की वर्तमान छवि के लिए ज्यादा जिम्मेदार तो वह राजनीति है जिसने पुलिस महकमे में पक्षाघात की स्थिति ला दी है। गहलोत का वकीलों के आगे इस तरह का समर्पण बचे-खुचे पुलिस मनोबल को धक्का ही है।
लोकतान्त्रिक दीक्षा के अभाव में मतदाता इस लोकतंत्र को कहां ले जायेगा, इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा होती है। पता नहीं यह अनाड़ी मतदाता इन नेताओं को क्या-क्या करने की छूट देंगे। लोक में कैबत भी है कि अनाड़ी की दोस्ती, जी का जंजाल| उसी तरह कह सकते हैं अनाड़ी के वोट, लोकतंत्र पर चोट।
16 मार्च, 2013

1 comment:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

ये सरकारें भूल जाती हैं कि शासन को जहां बल की आवश्यकता होती है वहां लोकतंत्र काम नहीं करता आैर आवश्यकता पड़ने पर इस प्रकार की हतोत्साहित पुलिस से सरकार क्या उम्मीद रख सकती है