Wednesday, March 6, 2013

इरोम शर्मिला भी इसी देश की नागरिक है


मैं तो बस एक साधारण महिला हूं और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करती हूं। मुझ से भी उन्हीं की तरह का सुलूक कीजिए, भेदभाव मत कीजिए। एक नेतृत्व के तौर पर किसी इंसान के प्रति पूर्वाग्रह रखें।
-इरोम शर्मिला
[सन् 2000 से आमरण अनशन का संकल्प लिए मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता और धारा 309 के अन्तर्गत आत्महत्या की आरोपी का दिल्ली की अदालत मेंदिए बयान का अंश (4 मार्च, 2013) ]
मैं आपका सम्मान करता हूं लेकिन देश का कानून आपको अपनी ज़िन्दगी खत्म करने की अनुमति नहीं  देता है
-जस्टिस आकाश जैन
[मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, दिल्ली (इरोम पर आरोप तय करते हुए, 4 मार्च, 2013)]
इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैंने आज तक जिनकी भी सुनवाई की है अथवा करूंगा आप उनमें सबसे अलग हैं। इस तथ्य को भी नकारना असंभव होगा कि आप लाखों देशवासियों की नज़र में एक महान देशभक्त हैं। यहां तक कि राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदर्शों और पवित्र जीवन वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। भारत की वर्तमान परिस्थिितयों के मद्देनज़र ब्रिटिश हुकूमत के लिए आपकी सजा के वर्षों में कमी या आपको मुक्त करना संभव हुआ तो सबसे ज्यादा प्रसन्नता मुझे होगी।
-जस्टिस सी एन ब्रूमफील्ड
[असहयोग आन्दोलन के बाद 1922 में देश में फैली हिंसा का एक दोषी गांधी को मानकर
छः वर्ष की सजा सुनाते हुए| (यद्यपि गांधी ने अहिंसक मूल्यों में आस्था जताते हुए
हिंस्र होते ही आन्दोलन वापस ले लिया था)]
उक्त तीनों उद्धरणों में अन्तर्निहित एक-से प्रवाह की अनुभूति से प्रेरित होकर आज की बात शुरू करते हैं 11, सितम्बर 1958 को संसद में पारितसैन्यबल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के विरोध में सन् 2000 से आमरण अनशन का संकल्प धारण किये मणिपुर की इरोम शर्मिला को इन दिनों अदालतों के चक्कर में डाल दिया गया और उनकी इच्छा के विरुद्ध नाक के रास्ते नली के द्वारा भोजन भी दिया जा रहा है| एक तथ्य यह भी है कि खुदकुशी की जिस धारा 309 के तहत इरोम पिछले एक वर्ष से भी ज्यादा समय से हिरासत में है, उस धारा में अधिकतम एक वर्ष की सजा का ही प्रावधान है| यह सब दुनिया के उस देश भारत में घटित हो रहा है जिस देश को गांधी ने अफ्रीका के बाद अहिंसा की प्रयोगशाला बनाया और समस्याओं के समाधान के लिए सत्याग्रह और उपवास जैसी युक्तियां दीं|
अफस्पा (AFSPA) जैसे सैन्य कानून को उत्तर-पूर्व के प्रदेशों में नागरिक प्रशासन के असफल होने के विकल्प के रूप में लाया गया था, जिसे बाद में जम्मू कश्मीर में भी लागू कर दिया गया| इन प्रदेशों में जब से यह कानून लागू है तब से ही इसे हटाने को कभी मद्धिम तो कभी पुरजोर आवाजें उठती रहीं हैं| क्योंकि इस कानून के अन्तर्गत सैन्य-बलों कोसिविल क्षेत्रोंमें असीमित अधिकार हासिल हो गये हैं और इनके दुरुपयोग की घटनाएं अकसर सामने आती रहती हैं| यह कानून सभ्य कहलाए जाने वाले समाज और लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों और उनके द्वारा चलाए जा रहे प्रशासन की अक्षमता का लिखित दस्तावेज है, जिसकी आड़ में आम नागरिकों को अकसर जलील होना और कभी-कभी बिना दोष के मरना भी पड़ता है और महिलाओं और नाबालिग किशोरियों को बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य को भोगना भी।
जिन स्थितियों और नागरिक प्रशासन की अक्षमताओं के चलते जिस कानून को 1958 में लागू किया गया और आज 54 वर्ष बाद भी सरकारों को उस कानून की जरूरत है, तब क्या अफस्पा पर भी पुनर्विचार की जरूरत नहीं है। एक लोकतांत्रिक देश की नागरिक इरोम शर्मिला भी तो यही चाह रही है।
अन्ना के अनशन के तीसरे-चौथे ही दिन उद्वेलित होने वाले देश के नागरिक इरोम पर ठिठकते भी नहीं है। यही तकलीफ इन प्रदेशों के नागरिकों की है जहां अफस्पा लागू है। तो देश की सरकार उन्हें सम्मानजनक दर्जा देती है और ही देश के बाकी नागरिक उनकी तकलीफों पर गौर करते हैं। उनकी तकलीफ उन सैकड़ों उदाहरणों के साथ जायज है जिनमें उनके साथ देश के दोयम हैसियत के नागरिकों जैसा बर्ताव सरकार द्वारा और अन्य प्रदेशों के नागरिकों द्वारा भी किया जाता है और इसी के चलते कुछ पड़ोसी देश इन क्षेत्रों में अलगाव के बीज बोने की गुंजाइश ढूंढ़ निकालते हैं।
06 मार्च, 2013

1 comment:

Siddharth Surana said...

Well written. I've seen that often people comment on their features and use words like 'Chinki' for them.