Friday, July 31, 2015

बीती रात के धारासार के बहाने कुछ यूं ही

यूं तो पिछले रविवार से शहर में तरावट है, लेकिन पिछले दो दिनों से पूरी तरह तर यह शहर बीती रात धारासार से नहाया। सावण बीकानेरकी कैबत तो कल से सिद्ध होनी है, मौसम विभाग भी इसकी संभावना जता ही चुका है।
देश के अन्य शहरों की तरह ही बीकानेर की बेतरतीब बसावट और यहां के बाशिन्दे इस तरह की बारिश के रंगों का सुख समान रूप से नहीं ले पाते है। अधिकांश भुगतने को ही मजबूर होते हैं। हो सकता है इस आलेख के अधिकांश पाठकगण बजाय भुगतने के इसे भोगते ही हों पर शेष जो भुगत रहे हैं उनके पास अखबार को खरीदने का न ही सामर्थ्य है और न पढ़ने का अवकाश।
न सभी मुहल्ले ऐसे हैं और न ही टापरे कि इस शहर में ऐसी बारिश सुकून दे। अधिकांश के लिए यह बारिश परेशानी का सबब ही बनती है। समर्थों के लिए यह मौसम मौज-मस्ती का हो सकता है, अभाव में रहन-सहन करने वालों के लिए तो बारिश आफत का कारण ही बनती है। वर्षाजनित बीमारियों का शिकार होने को मजबूर भी अधिकांशत: इन्हें ही होना होता है।
सामंत जब गांव-शहर को बसाते थे तो अन्य अनुकूलताओं के साथ भौगोलिकता जरूर देखते थे। बीकानेर भी इस भू-भाग के उस हिस्से में बसाया गया जहां टीले भी ऊंचाई और नजदीकियां लिए थे। लक्ष्मीनाथ मंदिर क्षेत्र के किसी ऊंचे भवन से नजरों को 360 डिग्री पर घुमाकर देखें तो क्षितिज की ओर ढलान और बड़े बाजार के इर्द-गिर्द उतरती-चढ़ती ढलानें पास-पास टीले होने का भान करवा देंगी।
इस तरह के क्षेत्र चुनने के दो कारण माने जाते हैंˆपहला, सामन्त आपस में भिड़ते रहते थे, संचार के कोई साधन नहीं थे, ऊंचाई पर हों तो हमलावर सेना दूर से आती दीख जाती। दूसरा, ज्यादा बारिश होने पर क्षेत्र डूब में आने से भी बच जाता।
अपनी बसावट के पांच सौ साल बाद यह शहर अपने बस में नहीं रहा, बेतरतीब पसर गया। वहां भी बस गया जहां ताल और तलाइयां हुआ करती थी। नलों से घर-घर पानी पहुंचने लगा तो उसकी निकासी के साधनों की जरूरत बनी। खुले नाली-नालियों से काम नहीं चला तो सिवरेज का सहारा लिया गया। हम भारतीय सुविधाएं और उसकी तकनीक आयात तो कर लेते हैं, उन्हें बरतने की तहजीब का नहीं। सिवरेज ले आए लेकिन मान लिया कि यह पानी के साथ कचरे को भी बहा ले जायेगी। डामर की सड़कें बना लीं लेकिन यह आज तक समझ नहीं पाये कि डामर के लिए पानी तेजाब का काम करता है। सड़कें बनाने पर न घरों से बहते पानी की व्यवस्था करते हैं और ना ही इसकी कि बारिश होने पर ये सड़कें बरसाती पानी को कितने दिन झेलेंगी। नतीजा, जब-तब शहर के विभिन्न हिस्सों में गन्दा पानी पसरा मिलता है। बारिश में ये दृश्य और भी विकराल हो जाते हैं। सड़कों के गड्ढ़े पानी से इतने गहरे हो जाते हैं कि अन्दाजा ही नहीं रहता, गुजरने वाला दुपहिया वाहन चालक अकसर दुर्घटनाग्रस्त हुए बिना नहीं रहता। संबंधित विभाग सड़क की मरम्मत करवाने में तो तत्पर होते हैं और साल में औसतन तीन-चार बार पेचवर्क करवाते हैं लेकिन ये नहीं विचारते कि बार-बार के इस नुकसान से बचा कैसे जाय। जबकि साल भर के पेचवर्क के खर्च से सड़कों पर पानी भराव की समस्या का स्थाई समाधान भी निकल सकता है।
लगे हाथ सांखला और कोटगेट रेल फाटकों के लिए अण्डरब्रिज का समाधान बताने वालों को याद दिला दें कि बरसाती पानी निकासी के लिए सूरसागर के दोनों ओर का नाला हर बार की तरह फिर जाम है, अण्डरब्रिज का नाला जाम नहीं होगा यह भ्रम ही है।
संस्कारी नागरिक बन जाएं तो नब्बे प्रतिशत समस्याएं यूं ही हल हो जायेंगी, शेष दस प्रतिशत को झेलना बड़ी बात नहीं है। लेकिन संस्कारी होने को असंभव मानना तो क्या हमने उसे अपनी चेतना से बाहर कर दिया है।
इसलिए शहर में सावन सुहाना ही भला। बादल बने रहें और कभी थोड़ा झिरमिर बरस लें और कुछ अलग मन हुआ तो फुहार से मन भर लें। अधिक बरसना हो तो खेतों में बरसे जहां इसकी जरूरत है। प्रकृति को अपने मन की करने लायक छोड़ा ही कहां है हमने। पूरी दुनिया ही जब प्रकृति से लगातार कुचरनी में लगी हो तो उसमें विचलन आना लाजिमी है।

31 जुलाई, 2015

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