Saturday, July 25, 2015

याकूब की सजा और फांसी की बात

दुनिया के अधिकांश देशों में या तो मृत्युदंड समाप्त हो गया है या जिन देशों में मृत्युदंड पर कानूनन् रोक नहीं है वहां की न्यायपालिका द्वारा मृत्युदंड की सजा देना अघोषित तय किया हुआ है। जहां मृत्युदंड अभी तक दिया जाता है उनमें अपना भारत भी एक है, जिसे मृत्युदंड हटाने के इस निर्णय में अग्रगण्य होना चाहिए था।
मृत्युदंड भी कानूनन् हत्या ही है जिसे किसी तर्क से जायज नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी यदि लगता है कि उम्रकैद का प्रावधान कुछ खूंखार अपराधियों के लिए पर्याप्त नहीं है तो इस मृत्युदंड के स्थान पर 'मृत्यु तक कैद' दी जा सकती है। प्रत्येक बिगड़े में सुधरने की संभावना होती है, बस उसे अनुकूल अवसर देने की जरूरत है।
(विनायक संपादकीय 31 मार्च, 2012)
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअन्त सिंह की हत्या की साजिश में शामिल बलवंत राजोआणा को फांसी देने की सजा पर 30 मार्च 2012 को उच्चतम न्यायालय द्वारा लगाई गई रोक पर लिखे 'सम्पादकीय' का उपर्युक्त अंश फांसी की किसी भी सजा पर प्रासंगिक है।
1993 के मुम्बई बम धमाकों के अपराधी याकूब मेमन की फांसी 30 जुलाई को उसके जन्मदिन पर मुकर्रर की गई है। वह खुद और न्याय में भरोसा करने वाले हर संभव कोशिश में हैं कि उसकी फांसी की यह सजा माफ होनी चाहिए। जब से फांसी की तारीख तय हुई है तभी से याकूब को फांसी दिलाने और दिलाने के हिमायती अपनी-अपनी बात रखते रहे हैं। मीडिया और सोशल मीडिया पर ऐसी चर्चाओं को पर्याप्त स्थान मिल रहा है।
इस बीच कल पूर्व रॉ अधिकारी बी रमन का वह लेख प्रकाश में आया जो जून, 2013 में अपनी मौत से बहुत पहले 2007 में रेडिफ के लिए लिखा, फिर प्रकाशित करने को मना कर दिया था। बी रमन वे अधिकारी थे जो कराची, पाकिस्तान में रह रहे याकूब और उसके परिवार के साथ भारत सरकार की ओर से अधिकृत तौर पर संपर्क में रहे और उसे परिवार सहित भारत लाने में सफल भी हुए। इस आलेख में उन्होंने लिखा है'मुंबई धमाकों में याकूब ने जो किया उसके लिए फांसी होनी चाहिए। लेकिन पकड़े जाने के बाद उसने जांच एजेंसियों की जैसी मदद की इसके मद्देनजर फांसी देने से पहले विचारना चाहिए।' रेडिफ ने यह लेख बी रमन के भाई से इजाजत लेकर परसों प्रकाशित कर दिया जो समयोचित है।
इस बीच इस मुद्दे पर कट्टरपंथियों ने लप्पालपी शुरू कर दी। आग उगलने में बेधड़क रहे एमआइएम सांसद अजदुद्दीन ओवेसी और भाजपा सांसद साक्षी महाराज दोनों ने अपनी जबानें खोल दी। इस तरह बात कहने और उथला करने के तौर-तरीके दोनों के ही ठीक नहीं। ओवेसी अपनी पार्टी के खुद सुप्रीमो हैं। लेकिन साक्षी महाराज तो उस पार्टी से हैं, जो अनुशासित होने का लेबल लगाए घूमती है। इस तरह की लगातार बकवास यह जाहिर करती है कि यह छूट भी किसी रणनीति का हिस्सा भर है।
आज की अपनी बात के शुरुआत में याकूब के लिए अपराधी विशेषण का प्रयोग किया है अर्थात उसे अपने किए की सजा मिलनी ही चाहिए। मृत्युदंड के विकल्प के तौर पर उसे जीवन-पर्यन्त जेल में रखा जा सकता है, लेकिन इसे दोहराने में कोई संकोच नहीं है कि मौत की सजा का प्रावधान सभ्य समाज का न्याय नहीं हो सकता।
इस बीच आंकड़ों के साथ कहा जाने लगा है कि आजाद भारत में अब तक मृत्युदण्ड पाए अपराधियों में अधिकांश दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग के क्यों है। जाहिर है समर्थ वर्गों के अपराधी केवल मौत की सजा से बचने का बल्कि बाइज्जत बरी होने का प्रबन्ध भी साध लेते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी द्वारा फेसबुक पर आज दी गई इस पुकार से आलेख को समाप्त करना समीचीन लगा'माईबाप न्यायाधीशो! आपके न्याय के मंदिर की डोलती घंटियां कुछ बोल रहीं हैं, मेहरबानी कर उन पर कान दीजिए।'

25 जुलाई, 2015

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