अट्ठावन के ओम थानवी इसी 31 जुलाई को अपने व्यवसाय पत्रकारिता की मर्यादित पारी पूरी कर प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक जनसत्ता की कार्यकारी संपादकी से निवृत्त हो लिए। सोशल साइट्स खासकर फेसबुक पर सदासक्रिय थानवी ने दो माह पहले ही अपनी एक पोस्ट के अन्त में सेवानिवृत्ति की जानकारी धीरे से खिसकाई थी। जिनकी पकड़ में आई उन्हें अपना कुछ चूकता-सा लगा।
पिछले लगभग एक सप्ताह से फेसबुक पर वे सब सक्रिय हैं जो ओम थानवी से प्रेम करते हैं, घृणा करते हैं और वे भी जो प्रेम और घृणा साथ-साथ करते हैं। अन्यथा भावुकता को सार्वजनिक तौर पर पास न फटकने देने वाले थानवी इस दौरान अपनी वाल पर गलगले भी नजर आए।
ओम थानवी की अपनी स्वभावगत दिक्कतें भी हैं। वे प्रतिभा को पहचानते हैं, भरपूर मान और स्नेह देते हैं और यदि कोई अपनी चौखट से ऊँचा कद जताता तो आईना दिखाने से भी नहीं चूकते। चौड़े-धाड़े ये सब करने वाले थानवी से इसीलिए कई नाराज भी हैं। इनमें ऐसे भी हैं जो अपने भ्रष्ट कर्मों की सजा से बचने के लिए उनकी प्रतिष्ठा का दुरुपयोग करना चाहते थे। थानवी से संबंधित पिछले सप्ताह की पोस्टों और स्टेटसों को देखें तो यह सब साफ समझ में आ जाता है। वे मानवीय और लोकतांत्रिक मूल्यों को लिहाज की आड़ नहीं देते। खबरियां चैनलों पर उनकी धीरय बहसें और सोशल साइट्स पर झपीड़ उपाड़ती पोस्टें उनके इन रंगों को बखूबी दरसाती हैं। हो सकता है यह कुएं के मेढ़क का दावा हो लेकिन थानवी की जनसत्ता से इस औपचारिक विदाई को सोशल साइट्स पर जिस तरह सुर्खियां मिली वैसी इन आठ वर्षों में देखी-पढ़ी नहीं गईं।
पत्रकारिता के फलक पर थानवी ने छात्र जीवन से ही अपनी राष्ट्रीय पहचान फ्रीलांसर के रूप में पिछली सदी के आठवें दशक के अंत में तब बनाई जब खाड़ी के एक शहजादे ने गोडावण शिकार के लिए जैसलमेर में डेरा डाला। ओमजी जैसलमेर पहुंचे और छायाचित्रों सहित खोजी रिपोर्ट तैयार कर राजस्थान पत्रिका को भेजी। पत्रिका ने तब एक फ्रीलांसर द्वारा भिजवाई उस रिपोर्ट को हाथों-हाथ लिया। इस के प्रकाशित होते ही नौबत यह आई कि शहजादे को अपना डेरा तय समय से पहले उठाना पड़ा। अलावा इसके जगद्गुरु शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ,
जैन तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य तुलसी और आचार्य रजनीश (ओशो) पर ओम थानवी के साक्षात्कार और पत्रकारी आयोजन भी कम उल्लेखनीय नहीं रहे हैं।
बीकानेरियों के लिए थानवी का विशेष उल्लेख इसलिए भी है कि वे यहीं पले-बढ़े और जो कुछ वे आज हैं वैसा बनने की नींव यहीं पड़ी। यहीं स्कूल-कॉलेज में पढ़े, नाटक किए, शुरुआती पत्रकारिता की, मौज-मस्ती भी की। यहीं से जयपुर राजस्थान पत्रिका में बुलाए गए। पत्रिका समूह को जब लगा कि नया-नया शुरू किया गया राजस्थान पत्रिका का बीकानेर संस्करण कुछ जम नहीं पा रहा है तो इतवारी पत्रिका से राष्ट्रीय पहचान बना चुके थानवी को बीकानेर भेज दिया। बीकानेर विशेष इसलिए भी है कि बीकानेर रहते ही उन्हें जनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण संभालने के लिए बुलाया गया।
बात 1989 की है। तब जनसत्ता का दफ्तर बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग में ही लगा करता था। मैं किसी काम से बनवारीजी से मिलने गया, उनसे हथाई के दौरान ही वहां से गुजरते प्रभाष जोशी ने कहा, मुझसे भी मिल कर जाना एक जरूरी काम है। फारिग होकर प्रभाषजी के पास पहुंचा तो उन्होंने पूछा—ओम थानवी कोई चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी संभाल लेंगे क्या। मेरा उत्तर था—सम्मानजनक प्रस्ताव हुआ तो जरूर संभाल लेंगे। प्रभाषजी ने कहा, मैं उन्हें चंडीगढ़ भेजना चाहता हूं। उस समय पंजाब में आतंकवाद चरम पर था। तब मोबाइल नहीं थे, फोन पर भी बात करना मुश्किल था। प्रभाषजी ने कहा, ओम से मिलकर संदेश देना कि मेरे से बात करें।
दूसरे दिन बीकानेर लौटकर सुबह ही ओम थानवी के घर पहुंच संदेश भुगता दिया। प्रभाषजी से फोन पर बात होने के बाद वे शाम की रेलगाड़ी से दिल्ली चले गये और तीसरे दिन ही उक्त चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी को ओढ़कर लौट भी आए। चंडीगढ़ में उनकी कर्मनिष्ठा की ही देन थी कि उन्हें सर्वोच्च जिम्मेदारी के लिए दस वर्ष बाद दिल्ली बुला लिया गया।
हो सकता है इस मुक्ति के बाद वे पेशेवर मूल्यों का निर्वहन ज्यादा खुलकर करें। यह भी कि 'अनंतर' के माध्यम से अपने पाठकों की उडीक फिर पूरी करने पर भी विचारें।
हो सकता है इस मुक्ति के बाद वे पेशेवर मूल्यों का निर्वहन ज्यादा खुलकर करें। यह भी कि 'अनंतर' के माध्यम से अपने पाठकों की उडीक फिर पूरी करने पर भी विचारें।
3 अगस्त, 2015
2 comments:
ओम थानवी जी की पोस्ट लगातार पढता रहा हूं। उनसे साक्षाात मिलना नहीं हो सका। हालांकि ओम जी के छोटे भाई मुरारीलाल कॉलेज में मेरे साथ थे। कॉलेज के दिनों में 1987 से 1991 तक मुरारीलाल के साथ कई बार ओमजी के बीकानेर स्थित घर पर जाना हुआ। सभी परिजनों से मिलना हुआ मगर ओमजी से कभी आमना सामना नहीं हो सका। ओमजी की फेस बुक पोस्ट से हिन्दी सुधारने तथा पत्रकारिता के आयाम समझने में मदद मिली है।
विजय ... सिटी स्कूल की वार्षिकी
दीप जी... आपकी कलम से - स्मृति हरिया गई :-)
Post a Comment