Wednesday, July 1, 2015

डॉक्टर खुद बीमारियों के कगार पर इसलिए हैं

आज के दैनिक भास्कर में पत्रकार धीरेन्द्र आचार्य के नाम से मेडिकल पेशेवरों पर एक पड़ताल छपी है। इसका आधार मेडिकल पेशेवरों द्वारा ही किया वह अध्ययन है जिसमें हम-पेशाओं के स्वास्थ्य के बारे में जानने की कोशिश की गई है। उक्त पड़ताल से पता यही लग रहा है कि यह अध्ययन शुद्ध पेशेवर अंदाज में किया गया है जिसमें जरूरत से कम डॉक्टर, कार्य घण्टे, औचक बुलावे, मरीजों और उनके परिजनों की ओर से होने वाला दुव्र्यवहार आदि-आदि को डॉक्टरों में रहे शारीरिक-मानसिक बदलावों का कारण माना गया है। सतही तौर पर किए जाने वाले ऐसे ही अन्य अध्ययनों की तरह इस अध्ययन में भी या तो जानबूझ कर असल तथ्य को अनदेखा किया गया है या अपने पेशे में गई बुराइयों को ढकने के लिए उन सबका उल्लेख नहीं किया गया।
शासनिक-न्यायिक या कहें संवैधानिक पदों यथा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों, राज्यपालों, मंत्रिमंडल के सदस्यों आदि का पदग्रहण शपथ के साथ होता है। इन शपथों के हश्र से हम वाकिफ हैं। अलावा इनके देश और समाज में मेडिकल को छोड़कर अन्य पेशेवर कार्यकलाप बिना किन्हीें शपथों के ही अंजाम दिए जाते हैं। एक डॉक्टरी का पेशा ही ऐसा है जिसके अध्ययन में पड़ते ही उन्हें हिपोक्रैटिक शपथ दिलवाई जाती है। उस मानवीय शपथ का हश्र आज कम बुरे मुकाम पर नहीं है।
उक्त उल्लेखित अध्ययन यदि हिपोक्रैटिक शपथ के प्रकाश में किया जाता तो परिणाम एकदम भिन्न आते और असल भी होते। संभवत: अध्ययनकर्ताओं का शायद यह मकसद था भी नहीं। अतिशयोक्ति में डॉक्टर को दूसरा भगवान भी कहा जाता है, लेकिन क्या उनकी वर्तमान कार्यशैली किसी आदर्श को स्थापित करती है? इस तरह के प्रश्न का जवाब यह सकता है कि समाज के अन्य उत्तरदायी अंगों से भी क्या ऐसी ही उम्मीद की जाती है। जवाब हैकी जाती है पर अमल सभी इसी बिना पर नहीं करते कि दूसरे भी तो ऐसे ही हैं। प्रत्येक वह जिसे लालच में पडऩे की गुंजाइश मिलती है, पड़े बिना नहीं रहता। आपवादिक उल्लेखों की जरूरत इसलिए नहीं कि वे अधिकांशत: उसके उलट होने की पुष्टि करते हैं।
बात मेडिकल पेशेवरों के अध्ययन की पड़ताल से शुरू की, उसी पर लौट आते हैं और बताते हैं कि डॉक्टरों, के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट आने का असल कारण क्या है। सबसे पहला कारण तो यही है कि उन्होंने राजनेताओं की संवैधानिक शपथों की तरह हिपोक्रैटिक शपथ को मात्र औपचारिक रस्म मान लिया। ऐसा मान लेते ही अन्यों को स्वस्थ करने के जिम्मेदार ये डॉक्टर अनायास ही अपनी शारीरिक-मानसिक अस्वस्थता को न्योत लेते हैं। परिणामस्वरूप वे हर तरह के लालच में पड़ जाते हैं। भूल जाते हैं कि उन्हें जो तनख्वाहें मिल रही हैं वह सरकारी नहीं असल में सामाजिक धन है। जिसे पाने की एवज में उन्हें, उनके पास आए प्रत्येक मरीज को यथासंभव स्वस्थ रखना है।
इसके उलट मंशा यही रहती है कि ये मरीज आउटडोर की बजाय उनके घर पर आएं। इसलिए आउटडोर में 'पापा काटने' की मंशा से मरीजों को निबटाते हैं। जहां तक हो डॉक्टर आउटडोर में बैठने से बचने की कोशिश करते हैं।
बिना जरूरत जांचें इसलिए लिखते हैं ताकि उन्हें जांच केन्द्रों से साठ प्रतिशत तक मिलने वाला कमीशन अधिक से अधिक मिले। ऐसे में वे जानने की कोशिश भी नहीं करते कि जांचें सही भी की गई हैं या नहीं। साठ प्रतिशत कमीशन देने वाला जांच की दरें अनाप-शनाप तो रखता ही है, चूंकि डॉक्टर को वह कमीशन पहुंचा रहा है इसलिए जांच में लापरवाही भी बरतता है। उसे पता है गड़बड़ होने पर कमीशनखोर डॉक्टर बोलेगा नहीं। और तो और मोटे कमीशन के लालच में मरीज और उसके परिजनों में भय पैदा कर बड़े कॉरपोरेट अस्पतालों में भेजना  भी आम होता जा रहा है। हां, ऐसे मामलों में मरीज का सामथ्र्य ये जरूर माप लेते हैं।
इस तरह ऊपरी कमाई का ठाठा किसी एक शहर में जमने पर मंशा यही रहती है कि उसका ट्रांसफर नहीं हो और हो सकता है अन्य जगह कहीं खाली तनख्वाह से काम नहीं चलाना पड़े। कहते हैं ना कि 'लालच बुरी बलाय'— ऐसे में ये डॉक्टर अपना सामाजिक जीवन तो खो ही बैठते हैं, पारिवारिक जीवन भी इनका ताक ही पर होता है। ये डॉक्टर अन्य कार्यकलापों के लिए कुछेक चापलूसों से घिर जाते हैं और हर तरह से उन्हीं पर निर्भर हो जाते हैं। कई डॉक्टर पूर्व परिचितों को पहचानने का ढोंग आउटडोर में भी इसलिए करते हैं कि 'बेगार' निकालनी पड़ेगी। वे भूल जाते हैं कि आउटडोर में आए मरीज को उचित परामर्श देना हरामखोरी में आता है, तनख्वाह उन्हें इसी बात की मिलती है।
ये डॉक्टर यह भी समझना नहीं चाहते कि अपने अधीनस्थों और समाज में उनका सम्मान उनकी ऐसी करतूतों से लगातार कम हो रहा है, सामने भले ही दिखावी सम्मान करते हों। उन्हें देख अधीनस्थ भी लालच में क्यों नहीं पडऩा चाहेंगे।
कुछेक डॉक्टर ऐसे भी हैं जो आउटडोर में अपना समय और ध्यान पूरा देते हैं, कमीशन पाने की और घर पर प्रैक्टिस की लालसा नहीं रखते। हो सकता है ऐसों के पास भव्य अट्टालिकाएं, विलासिता के अतिरिक्त सामान और लग्जरी कारें नहीं होती लेकिन उनके जीवन में सुकून होता है। ऐसे डॉक्टर अध्ययनकर्ताओं का लक्ष्य भी नहीं होते क्योंकि वे बीमारियों के उस कगार पर नहीं होते जिनकी वजह लालच होता हैं। संभवत: ऐसे ही डॉक्टर हिपोक्रैटिक शपथ का स्मरण रखते हैं।

1 जुलाई, 2015

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