Thursday, July 30, 2015

याकूब की फांसी, न्यायपालिका की तत्परता और सोशल साइट्स के संवाद

लोकतंत्र के चार पायो में एक भारतीय न्याय व्यवस्था को भले ही लेट-लतीफ कहा जाय लेकिन लगता है लोकतंत्र को फिलहाल ज्यादा इसी ने थाम रखा है। याकूब मेमन के मुकदमें और फांसी में उसकी परिणति के हवाले से बात करें तो न्यायपालिका ने अपने भरोसे को कायम रखने की भरसक कोशिश की।
मुम्बई बम धमाकों के अपराधी याकूब को उच्चतम सजा से बचाने की हर संभव प्रक्रियाओं के बाद तय तारीख को फांसी दे दी गई। यद्यपि फांसी की तारीख उनके जन्मदिन के दिन ही तय करना अटपटा जरूर लगा। आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मौत की सजा कानूनी हत्या ही है। 
याकूब की फांसी के दिन से पहले की पूरी रात उच्चतम न्यायालय ने जो नजीर पेश की, वह इस दौरान उस पर लगे सही-गलत सभी आरोपों से ऊपर उठाता है। इस रात याकूब के वकील आनंद ग्रोवर अपने साथी प्रशान्त भूषण और वृन्दा ग्रोवर के साथ उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के घर पहुंचे और पूर्व की एक नजीर बताई जिसमें फांसी के एक सजायाफ्ता की दया याचिका खारिज होने के बाद न्यायालय ने चौदह दिन दिये थे, उनकी दलील थी कि क्यों न याकूब को भी उसकी दया याचिका खारिज होने के उपरान्त चौदह दिन दिए जाएं।  न्यायाधीश ने उनकी इस दलील को गंभीरता से लिया और उन्हीं तीन जजों को ˆजिन्होंने याकूब की अन्तिम सुनवाई की थीˆ रात ढाई बजे उच्चतम न्यायालय भवन पहुंचने और इन वकीलों की दलील सुनने के निर्देश दिए। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में देर रात तक सुनवाई के उदाहरण तो मिलते हैं लेकिन आधी रात बाद इस तरह न्यायालय की सुनवाई का यह पहला उदाहरण है। यह सुनवाई आधी रात बाद 3.20 शुरू हुई और 4.20 बजे खत्म हुई। बाद इसके पचीस मिनट जजों को फैसला लिखने में लगे। तड़के लगभग पांच बजे जजों ने फांसी की सजा कायम रखने का फैसला सुना दिया।
बीच में यहां सोशल साइट्स की भूमिका पर भी बात करना जरूरी है। खबरिया साइट्स ने सोशल साइट्स के माध्यम से रात को लगे न्यायालय की सूचना जारी कर दी ˆइसके बाद सोशल साइट्स पर देर रात तक जागने वाले तड़के तक नहीं सोये तो बीच रात में जिसने भी अपना मोबाइल संभाला उसने रतजगे को न्योत लिया। खबरिया चैनलों ने न्यायालय की इस कार्यवाही का सीधा प्रसारण जारी रखा।
बात जब सोशल साइट्स की चल रही है तो यह बात करना जरूरी है कि इन पर सक्रिय अधिकांश या तो असंयमित हैं, या अभद्र। कुछ ऐसे भी हैं जो अश्‍लील और हिंस्र होने में भी संकोच नहीं करते। तथाकथित इस सभ्य और बौद्धिक समाज से ये उम्मीद की जाती है कि वह अपनी बात धैर्य के साथ सभ्य भाषा में तार्किक आधार पर कहें, अन्यथा चुप रहे। ऐसे मसलों में भावनाओं की जगह तो बिल्कुल नहीं होती। ऐसे लोग ये भूल जाते हैं कि घर-परिवार को भी कोरे भावनात्मक तौर पर चलाने की एक सीमा होती है, कुछ हद तक समाज को भी भावनाओं से हांक सकते हैं, लेकिन न्यायिक और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मसलों पर धैर्य और तार्किकता, दोनों तरह के आधार चाहिए होते हैं।
धैर्य और तर्कों के साथ सभ्य भाषा में कही बात का उत्तर आसान नहीं होता इसीलिए चर्चा में लोग बहुधा व्यक्तिगत आरोप, अश्‍लीलता और अभद्रता का सहारा लेते हैं। इस तरह का संवाद आपसी वैमनस्यता को ही बढ़ाता है और वैमनस्य बेचैन करके हिंस्र बनाता है। अंत में इस बात को पुन: दोहराने में कोई संकोच नहीं है कि याकूब को तो फांसी हो गई लेकिन यह फांसी जो मुद्दे छोड़ गई है उन पर विचारना जरूरी है। खासकर इस बात पर कि अपराधी को मौत की सजा से समाज और न्याय व्यवस्था कुछ हासिल भी कर रहे हैं या यह हिंसक संस्कारों का खुजलाना मात्र ही है।
भारतीय न्याय व्यवस्था में सजाओं के अन्य विकल्प पर्याप्त हैं। विचारना इस तरह भी चाहिए कि ऐसी वर्तमान व्यवस्था कहीं अपराध, सामाजिक विषमताएं और लुंजपुंज शासन-प्रशासन की ही पोषक तो नहीं है।

30 जुलाई, 2015

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