Saturday, July 11, 2015

दम तोड़ते गवाह और निरपेक्ष भाव में न्यायालय

लोकतंत्र का जिन चार खंभों पर टिका होना माना गया है, उनमें से प्रथम दो, कार्यपालिका और विधायिका जिस गत को हासिल हो रहे हैं, और बचाने की जिम्मेदारी जिस मतदाता वर्ग की है, खुद वह इसे लेकर लापरवाह है। इसके चलते शेष दो खंभों से ही उम्मीदें रखी जा सकती है। न्यायपालिका और पत्रकारिता के इन दो खंभों में से पत्रकारिता या कहें मीडिया पर ईस्ट इंडिया कं. के देशज रूप कॉरपोरेट घराने बहुत चतुराई से केवल काबिज होते जा रहे हैं बल्कि पिछले अरसे में उसने मीडिया के बड़े हिस्से की साख को बट्टे खाते डालना भी शुरू कर दिया है। ऐसे में बकरे की अम्मा बना बाकी मीडिया भी कब तक खैर मनाएगा कह नहीं सकते। बचे एक न्यायपालिका रूपी खंभे को भी सामथ्र्यवान खिराने जरूर लगे हैं लेकिन यह हाल तक इतना मजबूत है कि ऐसे समय जब अवाम लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लापरवाह और शेष तीन खंभे जब तक अपनी पर लौट आएं तब तक यही एक इन मूल्यों को सांभे रख सकता है।
बावजूद इसके न्यायपालिका से संबंधित ऐसी खबरें ही जाती हैं जिनसे भरोसा डिगने लगता है। न्यायपालिका जिस ओर से सचेष्ट नजर नहीं आती इनमें न्याय की तत्परता तो है ही अलावा इसके ऐसी लेटलतीफी में गवाहों पर क्या गुजरती है उसे हर सामान्य जागरूक जानता समझता हैगवाहों का भावनात्मक भयादोहन, प्रलोभनों और धमकियों से उन्हें डिगाने की कोशिश होती है। प्रशासन भी ऐसे मामलों में सामान्यत: सक्रियता नहीं दिखलाता और न्यायपालिका की सापेक्षता न्यायालय कक्ष के बाहर झांकती भी नहीं। ऐसे में आरोपी पक्ष की ओर से मुकदमे को लम्बा खींचने की जुगत तब तक जारी रखी जाती है कि जब तक या तो गवाह का कोई ताबीज बन जाए या फिर फरियादी की उम्मीद ही खत्म हो जाए। पिछले एक-दो वर्षों में गवाहों का इंतजाम जिस तरह किया जाने लगा है वह अन्दर तक विचलित करने वाला है जिसे इन दो मामलों से समझा जा सकता हैपहला, मध्यप्रदेश का व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं से संबंधित महाघोटाला और दूसरे धर्मगुरु बने प्रवचनकार आसाराम का। व्यापमं घोटाले में प्रभावशाली लोग दावं पर हैं। उन्होंने धन और अपने निकटजनों को धंधे लगाने के वास्ते जो खुला खेल खेला वह बेरोजगारों और विद्यार्थियों के लिए आजादी बाद का सबसे निराशाजनक मामला है। जब इसकी जांच उच्च न्यायालय की निगरानी में स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम यानी एसआइटी के अन्तर्गत स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) कर रही थी, उसमें सरकार में काबिजों का अपने अपनों को बचाने के चक्कर में उलझाड़ इतना ले आया गया कि इसके चलते जिन-जिन लोगों के कारण फंसने की गुंजाइश बनी, वे सब संदिग्ध मौतों के हवाले होने लगे। मध्यप्रदेश का उच्च न्यायालय ऐसी मौतों को लेकर निरपेक्ष अवस्था में देखा गया। उसकी ऐसी निरपेक्षता, न्याय व्यवस्था से भरोसा उठने के लिए पर्याप्त थी और ऐसी ही निरपेक्षता यदि देश की पूरी न्यायिक व्यवस्था में दीखने लगे तो हो सकता है दुर्गति को प्राप्त शेष तीनों खंभों के चलते लोकतंत्र धड़ाम से नीचे ही गिरेगा। यह तो कुछ लोग उच्चतम न्यायालय पहुंच गये और उसने पर्याप्त हस्तक्षेप कर व्यापमं घोटाले को उजागर करने में लगे लोगों का भरोसा बढ़ाया है।
ऐसा ही मामला किशोरी से दुष्कर्म सहित कई अन्य ऐसे ही कबाड़ों में फंसे आसाराम-नारायण, बाप-बेटे का है। इनके पास दोहरी ताकत हैधन की भी और भोले भक्तों की भीड़ की भी। ये लोग जेल से बाहर आने के लिए हर उस करतूत को आजमा रहे हैं जिससे थोड़ी भी राहत मिले। इस केस में कई गवाह मारे जा चुके हैं, कई अधमरे हैं, और कई मुकर चुके हैं। ताजा मामला कल का है जिसमें उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुरा में एक गवाह को गोली मार दी गई। वह गंभीर हालत में अस्पताल में है। क्या न्यायपालिका ऐसी घटनाओं को रुकवाने में सक्रियता से तत्परता नहीं दिखा सकती? जो न्यायालय ओमप्रकाश चौटाला, लालूप्रसाद यादव, कलमाड़ी, कनीमोझी, .राजा से लेकर आसाराम तक को सीखचों में रख सकता है वह शासन-प्रशासन को भी पाबन्द कर सकता है कि वह ऐसे गवाहों और ऐसे मामले उठाने वालों को पर्याप्त सुरक्षा दे और साथ में यह भी कि ऐसे मामलों को निबटाने में खुद न्यायालय को भी तत्परता दिखानी चाहिए।

11 जुलाई, 2015

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