Friday, July 3, 2015

सोशल मीडिया अराजक भी असरकारी भी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोशल साइट्स पर सक्रिय अपने समर्थकों को घर बुलाया और बातचीत की। इस दौरान बताया कि इन सोशल साइट्स पर उनके लिए प्रयोग किए भद्दे मजाक और अपशब्दों का प्रिंट अपलोड कर निकालें और उन कागजों को यदि ताजमहल पर लगा दें तो वे इतने होंगे कि पूरा ताजमहल ढक जाएगा। उन्होंने कहा कि बावजूद इसके किसी को भी ब्लॉक नहीं किया। सोशल साइट्स पर सक्रिय अपने समर्थकों से मोदी ने आग्रह किया—'हमें इस तरह की शब्दावली से बचना चाहिए' अन्य कई प्रवचनकारों की तरह मोदी ने आदर्श बात ही कही। इस तरह की भाषिक हिंसा से सभी को बचना चाहिए। लिखना-बोलना जैसे सभी माध्यमों में।
मोदी की इन बातों को कई आयामों से देख सकते हैं, उदाहरण देने के लिए ताजमहल ही को क्यों चुना, वे किसी अन्य भवन को भी चुन सकते थे? हो सकता है उन्होंने हिसाब लगा लिया हो कि जितना कागज प्रिंट होगा उनसे दूसरी इमारतें पूरी तरह ढकेंगी नहीं या छोटी होगी तो बच जाएंगे। इस बात को यहीं छोड़ेंगे।
ये बातें उन्हें अपने परिणामविहीन शासन के एक साल पूरा होने पर ध्यान में क्यों आई। सोशल मीडिया अपने देश में लगभग दस साल से सक्रिय है और पिछले पांच साल से तो माहौल बनाने-बिगाडऩे की हैसियत भी पा चुका है। इस मीडिया पर सक्रिय रहे हरेक को पता है कि 2013 में मोदी को भाजपा चुनाव अभियान का प्रभारी बनाए जाने के बाद से इस माध्यम का सर्वाधिक दुरुपयोग मोदी समर्थकों ने ही किया है। केवल भाषा अभद्र रही बल्कि तथ्यों को गलत और चित्रों को फोटोशॉप करके विकृत और भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। बीमार मन के लोगों ने गांधी और जवाहरलाल नेहरू को भी नहीं छोड़ा। तथ्यों के आधार पर आलोचना के भागी गांधी और नेहरू, दोनों हो सकते हैं। लेकिन इनके बारे में कहने-लिखने में अश्लीलता और अभद्रता की सीमाएं लांघी गई जो अब भी बदस्तूर जारी है। मोदी उन पर तब केवल क्या इसलिए चुप रहे कि वह सब उनके लिए तब अनुकूलता को बढ़ा रहे थे और विरोधियों के प्रति घृणा उपजा रहे थे। मोदी ने उदाहरण अपना क्या इसलिए दिया कि यह सब उन्हें असहज करने लगा है अन्यथा वे गांधी-नेहरू पर अब भी बदस्तूर जारी इस विमर्श को रोक देते। गांधी से भी असहमतियां हो सकती हैं, हैं भी और नेहरू की आर्थिक नीतियां देश के प्रतिकूल मानने वाले भी हैं। लेकिन केवल इस बिना पर उनके योगदान को केवल कूड़े में फेंका गया, बल्कि उनके लिए अश्लीलतम भाषा प्रयोग कृतघ्नता की श्रेणी में आते हैं।
स्थानीय व्यक्तिगत उदाहरणों से अलग पिछली लगभग एक शताब्दी के भाषा-क्षरण की पड़ताल करें तो संगठित समूह के रूप में दोषी वही संंगठन ध्यान आता है जिससे संस्कारित स्वयं प्रधानमंत्री मोदी हैं। बातचीत में लगभग अनौपचारिक और छपे में अनाम उदाहरणों का जखीरा है जिनमें धार्मिक समुदायविशेष के बारे में फैलाई जाती रही घृणाओं के अलावा गांधी-नेहरू के बारे में इतना अनर्गल प्रलाप किया गया है कि मोदीजी के ही इस प्रिंट बिम्ब प्रयोग से बात करें तो आकाश में भी समाए, केवल कहे गये शब्दों का इतना ही पिं्रट है। तकनीक विकसित हो जाए तो इतने कागज इकट्ठे हो जाएंगे कि पूरी पृथ्वी को कई-कई बार ढका जा सकेगा। यह अतिशयोक्ति इसलिए नहीं है कि कितने ही लोग तो पिछली एक शताब्दी से गांधी-नेहरू को भुंडाने में जुटे हैं। और बात अवैज्ञानिक भी इसलिए नहीं कि विज्ञान मानता है कि ध्वनि अमर है इसलिए बोला गया प्रत्येक शब्द और सभी तरह की ध्वनियां आकाश में स्टोर हैं।
ये सब मोदी नहीं जानते ऐसा मानने वाले उन्हें कम आंक रहे हैं। वे सब कुछ जानते हैं और उनके हर किए और कहे के अपनी मानी हैं। अब वे असहज इसलिए हो रहे हैं कि उन्हें लगने लगा है कि सोशल मीडिया का यह अस्त्र अपनी दिशा बदल उनकी ओर रहा है। वे इस अस्त्र की विध्वंसता से भी पूरी तरह वाकिफ हैं। वे ये भी जानते हैं कि कांग्रेस जैसी पार्टी को क्षत-विक्षत करने में सोशल मीडिया की उल्लेखनीय भूमिका रही। क्या इसीलिए गांधी कुछ भी हासिल करने में साधनों के शुद्ध होने की बात कहा करते थे?

3 जुलाई, 2015

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