Wednesday, June 4, 2014

लूनकरणसर क्षेत्र में तेंदुए की पदचाप का संदेश

दो-तीन दिन से समाचार है कि बीकानेर जिले की लूनकरणसर तहसील इलाके में तेंदुआ गया है। कुछ मवेशियों के शव मिलने के बाद खोजबीन की गई तो पता लगा कि कोई बड़ा जंगली जानवर इलाके में गया है। पंजे के निशान देखकर अंदाज लगाया जा रहा है कि तेंदुआ हो सकता है।
सह अस्तित्व की अवधारणा को मनुष्य ने जबसे धता बताना शुरू किया तभी से पशु-पक्षी और पेड़-पौधे इसके शिकार होते रहे हैं, मनुष्य अपने लालच को पूरा करने में जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों को बाधा मानने या उनसे लालच की पूर्ति संभव देखता है तो बिना असन्तुलन की परवाह किए चर-अचर जगत के इन सह-अस्तित्वियों को खत्म करने में संकोच नहीं करता। मनुष्य की इस तरह की सोच का ही परिणाम है कि वह लालच-पूर्ति के लिए अब अपने से कमजोर मनुष्य को भी शिकार बनाने लगा है। आए दिन दुर्लभ या नष्ट हो चुकी प्रजातियों की बातें सुनते आए ही हैं।
लूनकरणसर में तेंदुआ यदि आया है तो इसीलिए कि सदियों से उनके विचरण और देहयापन के लिए शिकार की गुंजाइश हम लगातार सीमित करते जा रहे हैं। उनके जंगल तथाकथित विकास की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। शहरों का अन्तहीन विस्तार, सड़कों रेलमार्गों का जाल और जंगलों और बीहड़ों तक खेती करने, कारखाने लगाने की हमारी भूख ने इन जंगली जानवरों के अस्तित्व पर संकट ला दिया है। ऐसे में या तो ये खत्म हो जायं या फिर बचने के लिए रहने और शिकार के नए इलाके तलाश करें। देखा जाए तो लूनकरणसर के जिस इलाके में तेंदुए के होने की आशंका जताई जा रही है, उस इलाके के सैकड़ों किलोमीटर चौतरफा में ऐसे कोई जंगल नहीं हैं जहां इनके होने के प्रमाण हों। ऐसे में सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि ये जंगली जानवर किस मजबूरी में अपना मूल स्थान छोड़कर इतनी दूर तक गए होंगे। इस तरह की घटनाओं में अकसर देखा गया कि हम इतने हिंसक हो जाते हैं कि उन्हें मारने में ही अपना आनन्द ढूढते हैं। वह तो कानून इस तरह के बने हुए हैं कि कोई उनका भय दिखा दे तो जरूर मनुष्य संयम बरतता है अन्यथा सभ्य कहलाने वाले जंगली होते देर नहीं लगाते।
ठिठककर इस पर विचार करना जरूरी है कि विकास के जिस मॉडल को अपनाया है वह किसका विकास है? क्या वह केवल सबलों, समर्थों, समृद्धों का ही विकास है? तो फिर जंगली जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के बाद नम्बर उन्हीं का लगेगा जो निर्बल हैं, सामथ्र्यहीन हैं और गरीब हैं। विकास की इस लालची अवधारणा में चर-अचर के साथ विकसित होने की बात तो दूर खुद मनुष्य के सामूहिकता के साथ विकसित होने की भी गुंजाइश नहीं है।
विकास की जिस अंधाधुंध गति से मनुष्य दौड़ रहा है उसमें यहां कही जा रही बातें बाधा बनना तो दूर रड़कती भी नहीं है, और यही नजरअंदाजी मनुष्यता के लिए चिन्ताजनक है।
राजनेता और जनप्रतिनिधि तो इसी अंध-दौड़ के संवाहक बने हुए हैं। जिन धर्मगुरुओं से सही रास्ता दिखाने की उम्मीदें मनुष्य लम्बे समय से करता रहा है, उनका वेश लालचियों ने धारण कर लिया है और इनमें से अधिकांश बड़ी चतुराई से मनुष्य की आस्थाजनित कमजोरी का उपयोग अपनी विलासिता पूरी करने में कर रहे हैं।
अनजानी जगह इस तरह तेंदुए का आना चेतावनी है कि जिस तरह वह बेघर कर दिए गए हैं, वैसे ही कमजोर मनुष्यों के बेघर होने की शुरुआत होने वाली है। गरीब और आदिवासी क्षेत्रों में तो इसकी शुरुआत हो चुकी है।

4 जून, 2014

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