Monday, June 16, 2014

संघ, भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद और मोदी

दिसम्बर, 2013 के पांच विधानसभाओं और हाल ही के लोकसभा चुनावों के बाद लगता है भारतीय जनता पार्टी भारी जिम्मेदाराना दबाव में है। नये राष्ट्रीय अध्यक्ष की तलाश से लेकर जिलाध्यक्षों तक के लिए कवायदें ऐसी चल रही हैं कि पार्टी जैसे अपनी नई सांघठनिक छवि पेश करने में जुटी हो। केन्द्र की नई सरकार में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह शामिल होने के बाद से ही सभी तरह के प्रयासों के बावजूद नया अध्यक्ष तय ना हो पाने से लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाजपा की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस पद की नियुक्ति में अब तक की जैसी स्वतंत्रता नहीं देना चाहते। ऐसे ही आत्मविश्वास से सज्जित मोदी पार्टी के इस महत्त्वपूर्ण पद पर किसी ऐसे को बिठाना चाहते हैं, जो दो में से एक चुनने की जरूरत पड़ने में बजाय संघ के मोदी को ही चुने। मोदी को इसी तरह से काम करने की आदत भी है। लेकिन संघ भी संगठन और अपनी पारिवारिक इकाइयों को जिस तरह से चलाता आया है, उसमें इन इकाइयों को तय-सीमा में छूट के बावजूद वह अन्तिम निर्णय अपने पास ही रखता आया है। संघ ने ऐसा सामर्थ्य अपने स्वयंसेवकों के माध्यम से अर्जित किया तो मोदी ने अपने काम करने के तौर-तरीकों से। मोदी के तौर-तरीके कांग्रेस के तौर-तरीकों का बेधड़क रूप ही है।
कांग्रेस के पास संघीय शाखाओं जैसी कोई ताकत नहीं है। पार्टी संगठनों की बात करें तो दोनों पार्टियों के संगठनों में जिस तरह के लोग हैं और जिस तरह वे अपनी सुविधाओं से दोनों पार्टियों में जिस तरह आवाजाही करते रहते हैं, जिसके दोनों में अन्तर करना मुश्किल है। हालांकि कांग्रेस ने भी संघ की देखा-देखी कांग्रेस सेवादल से वैसी उम्मीदें जरूर कीं लेकिन संघ-निष्ठ स्वयंसेवकों जैसा थोड़ा-बहुत भाव भी पैदा नहीं कर पाये।
जनसंघ जब जनता पार्टी से गुजर कर भारतीय जनता पार्टी बनी तब से उसका चरित्र वह नहीं रह गया, जैसा संघ चाहता है, लेकिन कई कारणों से भाजपाई वरिष्ठों ने नये राजनीतिक माहौल और लोहे से लोहा काटने के तर्क से पार्टी चलाने के तरीके में वह सभी छूटें ले ली, जैसा कांग्रेस करती आयी है। मोदी को लग गया था कि कांग्रेसी लक्षणों का प्रयोग कुछ संकोचों के साथ करते रहेंगे तो उसे कभी मात नहीं दे पाएंगे। होमियोपैथी की भाषा में बात करें तो उन्हीं सभी लक्षणों की हायर पोटेन्सी मोदी ने अपनाई तो वह सब हासिल कर लिया जिसकी उम्मीद आज से एक साल पहले तक किसी को नहीं थी।
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को लेकर कोई फैसला नहीं हो पा रहा है। इसे मोदी और संघ के पार्टी पर वर्चस्व की जद्दोजहद के रूप में भी देख सकते हैं। मोदी शायद यह दुस्साहस ना करें कि संघीय संयुक्त परिवार से पार्टी को अलग कर बडेर घर से रिश्ता पूरी तरह खत्म कर लें। उन्हें शायद इसका भान है कि स्वयंसेवकों के तौर पर पार्टी को जो ढांचागत आधार मिला हुआ, वैसा फिलहाल देश में किसी पार्टी के पास नहीं है, वामपंथी पार्टियों के पास भी नहीं। इन स्वयंसेवकों की निष्ठा दिल्ली नहीं नागपुर के लिए दर्ज है और सकारात्मक बात यह है कि इनमें से अधिकांश की कोई राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा नहीं हैं। संघीय निष्ठा इतनी कि संघ यदि भरी दोपहर को स्वयंसेवकों से रात कहलवाना चाहें तो ये दिन मानने वालों को भ्रमित कहने में एक क्षण भी नहीं लगाएंगे। इसकी छिट-पुट बानगी ये जब तब इतिहास, राष्ट्र, संस्कृति आदि की अपनी व्याख्याओं से देते ही रहते हैं, ऐसे में मोदी की असल परीक्षा अब ही है कि वे अपनी फितरत के अनुसार इस संघीय बिसात पर अपनी गोटियां कैसे सजाते हैं?
16 जून, 2014


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