Thursday, June 26, 2014

संभाग में शासन, अच्छे दिन और आपातकाल की बरसी

बीकानेर संभाग की सरकारी मशीनरी इन दिनों हरकत में है। गई 19 से शासन डेरा डाले जो है यहां। कल से जिले का प्रशासन जरूर कुछ सुस्ती महसूस कर रहा है। चूंकि मुख्य सचिव ने कल शहरी समस्याओं और अटके कार्यों का जायजा लिया सो फिर कुछ भागा-दौड़ी रही। सूबे की मुखिया श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ की ओर है, चूरू भी जाना है। 29 को जब तक राजे अपने लवाजमे के साथ लौटेंगी, इन तीन दिनों में तब तक 29-30 जून के तय और संभावित आयोजनों की तैयारियों के अलावा कोई बड़ी भाग-दौड़ दिख नहीं रही है। चौखूंटी पुलिया का उद्घाटन हाल-फिलहाल तक तय नहीं हो पाया है। मुख्यमंत्री तो कह चुकी हैं कि पुलिया यदि तैयार है तो 29 को चालू कर दिया जायेगा।
खैर, यह तो बात हुई शासन-प्रशासन की सक्रियता की। वसुन्धरा राजे के तेवर अगले पांच वर्षों में कुछ कर दिखाने के हैं। कर दिखाने के तेवर तो उनके पिछले कार्यकाल में भी थे, लेकिन अंजाम के तरीके में अन्तर साफ दिख रहा है। करने-करवाने के तौर-तरीकों में और किसे किस तरह करना-करवाना है और किसे ठण्डे बस्ते में डालना है-चल रहे किस काम और योजना को बटका लगाना है- लग रहा है, राजे इस सब पर विचार कर रही हैं, समय की अनुकूलता दिखते ही सक्रिय होंगी। मुख्यमंत्री की मंशा से तो लगता है कि पिछली सरकार की लोक लुभावन कई योजनाओं को चालू रखने की उनकी मंशा नहीं है। गुजरात के मुख्यमंत्री से देश के प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली भी ऐसी ही रही है कि जो काम होते दिखते हैं उन्हें पहले करो और ऐसे काम जिससे आबादी का बड़ा हिस्सा लाभान्वित तो होता है लेकिन प्रतिक्रियाहीन ऐसों से यदि प्रचारित कुछ होता हो, ऐसे काम करने से लाभान्वित चाहे आबादी का बड़ा हिस्सा हो, लेकिन उनके समर्थ और समृद्ध प्रशंसक समूह को यह सब फिजूल लगता रहा है। दक्षिणी प्रदेशों को छोड़ दें तो लोककल्याण की योजनाओं के वर्तमान दौर की शुरुआत उन्हीं प्रदेशों से हुई है जहां भाजपा की सरकारें थीं।
दरअसल यह देश आजादी बाद के इन छासठ वर्षों में विभिन्न सत्तारूपों पर काबिजों के द्वारा ठगा जाता रहा है, जिसमें राजसत्ता, धनसत्ता, धर्मसत्ता और दबंगसत्ता की भूमिकाएं मुख्य रहीं। इन सभी तरह के सत्तासीनों ने अपने और अपनों के हित में वह सब किया जो आम-आवाम के लिए किया जाना चाहिए था। पिछले दो-तीन दशकों से जब यह लगने लगा कि गरीबों की स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं और इस बदतरी की छाया सत्तासीनों के चेहरों पर पड़े बिना नहीं रहेगी तो 'दान-पुण्य' की अवधारणा को लोककल्याणकारी योजनाओं में आवृत करके पेश किया जाने लगा। इन योजनाओं से लाभ की उम्मीदें भी बांधी गई कि उनके 'टुकड़ों' से अनुगृहीत होकर वोट उन्हें देंगे। लेकिन राजस्थान के हवाले से बात करें तो अशोक गहलोत सरकार की तमाम लोककल्याणकारी योजनाओं से मतदाता प्रभावित नहीं हुआ।
ऐसी सभी योजनाओं में बाधा भ्रष्टाचार की है, जो किसी भी योजना का लाभ सम्मानजनक तरीके से उसके पात्र तक नहीं पहुंचने देता। इस भ्रष्टाचार को खत्म करने की मंशा किसी भी शासक में इसलिए नहीं दीखती, क्योंकि ये सभी भ्रष्टाचार पर सवार होकर ही इस मुकाम पर पहुंचे हैं।
अकर्मण्यता का एक बड़ा उत्प्रेरक भ्रष्टाचार है और संभाग के इस दौरे पर वसुंधरा अपने प्रशासनिक बेड़े को यह सन्देश प्रेषित करना चाह रही है कि वह ढिलाई और लापरवाही बर्दाश्त नहीं करेगी। ऐसे में या तो लगातार 'हुड़ा' देकर काम करवाओ, जो संभव नहीं है या व्यवस्था भ्रष्टाचार से मुक्त हो। इसके बिना मोदी और वसुन्धरा सुधारा चाहते हैं तो वह फिर डण्डे के जोर से यानी तानाशाही से ही संभव है। 1975 में आज ही के दिन लगे आपातकाल की पैरवी ऐसे ही कुतर्कों के आधार पर तानाशाही मानसिकता वाले अकसर करते हैं। अन्त में इसे फिर दोहराने में हर्ज नहीं है कि बिना भ्रष्टाचार को मिटाए असल के अच्छे दिन संभव नहीं हैं।

26 जून, 2014

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