Wednesday, June 18, 2014

राज्यपालों के बहाने राजनीति की पड़ताल

प्रदेशों में लगभग शोभाऊ लेकिन भारतीय शासन प्रणाली में जरूरी संवैधानिक पद राज्यपाल पर सामान्यत: चर्चा-बहस नहीं होती। रोमेश भण्डारी जैसों द्वारा पार्टी के एजेन्ट के तौर पर काम करने पर या फिर केन्द्र में सरकार बदलने पर यह पद बीच बहस में ही जाता है। 1977 में जब केन्द्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो कुछ राज्यपालों को हटाया गया था। उसके बाद इस तरह का सिलसिला जब तब देखने को मिल जाता है। हाल के बरसों में पिछली राजग सरकार ने और फिर उसके बाद आई संप्रग की सरकार ने इसी तरह की कवायद की। तर्क यही होता है कि यह नियुक्तियां चूंकि राजनीतिक होती हैं, इसलिए केन्द्र की सरकार प्रदेशों में अपने भरोसे का प्रतिनिधि क्यों लगाए। संप्रग सरकार ने जब राजग के लगाए कई राज्यपालों को हटाया तो मामला उच्चतम न्यायालय में गया और फैसला केन्द्र सरकार के पक्ष में आया।
मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में नई सरकार बनने के दिन से ही राज्यपालों को लगाने-हटाने की चर्चा शुरू हो गई थी। मोदी अपनी सरकार का जो रंग-रूप देना चाहते हैं, उसके लिए पार्टी के कई वरिष्ठों को ठिकाने लगाना जरूरी है, अन्यथा हो सकता है वे कुछ कर पाएं या नहीं, कुचरनी तो जारी रख ही सकते हैं। जिन भाजपाई वरिष्ठों के नाम चर्चा में हैं उनमें मुरलीमनोहर जोशी, जसवंतसिंह, लालजी टंडन, यशवंतसिन्हा, कल्याणसिंह आदि हैं। हो सकता है वसुन्धरा के तेवरों का ध्यान किया गया तो जसवंतसिंह इस सूची से बाहर हो सकते हैं। लेकिन ऐसे आठ-दस नेताओं को खपाने के लिए राजभवन भी खाली चाहिए सो कहा जा रहा है कि गृह मंत्रालय के सचिव स्तर के अधिकारी ने कुछ राज्यपालों को फोन कर कहा कि वे अपना पद छोड़ दें। उत्तरप्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने पद तुरंत छोड़ दिया, उल्लेखनीय है कि जोशी राजनीतिक पृष्ठभूमि से नहीं आते। शेष जो राजनीतिक पृष्ठभूमि से हैं वे इस बदलाव में राजनीति देख रहे हैं। नियुक्तियां यदि केवल राजनीतिक आधार पर हुईं है और किसी राज्यपाल की निष्ठा जब-तब राजनीतिक देखी गई हो तो पद पर बने रहने का औचित्य समझ से परे है। लेकिन कई नियुक्तियां गैर राजनीतिक होती हैं उन्हें केवल केन्द्र में सरकार बदलने भर पर हटा देना सम्मानजनक नहीं कहा जा सकता। कल एक चर्चा में जस्टिस सोढ़ी ने कहा कि ऐसे गरिमामय पदों पर बैठों को यूं हटाना सम्मानजनक नहीं, इसके लिए व्यवस्था में बदलाव होना जरूरी है। वैसे कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज जैसों को केवल खपाने के लिए और शीला दीक्षित पर कॉमनवेल्थ घोटालों की आंच देने के लिए गवर्नर बनाना कहां तक उचित है?
राजनीति में जिस तरह का क्षरण देखा जा रहा है और जिस तरह के लोगों को आम-आवाम जिता कर भेज रही है, ऐसे में यह उम्मीद करना कि ये जीत कर गये लोग किन्ही भलेमानस को राज्यपाल जैसा गरिमामय पद सोंपेगे लगता नहीं है। फिर भी राजग और संप्रग दोनों ही सरकारों ने डॉ विष्णुकांत शास्त्री और गोपालकृष्ण गांधी जैसे लोगों को राज्यपाल बनाकर कुछ तो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
लगता है केन्द्र सरकार संसद के बजट सत्र से पूर्व राज्यपालों को हटाने-लगाने की कवायद निबटा लेगी ताकि नरेन्द्र मोदी कम-से-कम अपने से इन वरिष्ठों से निश्ंिचत हो लें। बाकी तो दाबाचींथी सब जगह चलती है, जिस तरह संप्रग की सरकार में कई दागी भाजपाइयों ने बचने की जुगत भिड़ा ली थी, शीला दीक्षित चाहेंगी तो इस राज में भी उनका कुछ खास नहीं बिगड़ना है। सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा लगभग निश्ंिचत ही हैं, संप्रग सरकार के दस सालों में अटल बिहारी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य निश्ंिचत थे ही। कहते हैं कि जनता भोली है, इन नेताओं के चकारिये में ही जाती है और ये राजनीति करने वाले बारी-बारी से जनता को बेवकूफ बनाते रहने के मौके की जुगत भी बिठा ही लेते हैं।
18 जून, 2014


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