लोक में थोड़े भिन्न रूपों में प्रचलित एक कैबत
का मूल भाव यही है कि बोलने वाले के चने भी बिक जाते हैं और नहीं बोलने वाले के मोती भी पड़े रह जाते हैं। यह बात केन्द्र की संप्रग-दो की
गई सरकार पर बखूबी लागू होती है। इसके मानी ये कतई नहीं है कि उसके राज में हुए घोटालों से उसे बरी किया जा रहा है। लेकिन प्रदर्शन कला बन चुके राजनीति के व्यवसाय में जरूरत होने पर भी नहीं बोलना कांग्रेस के लिए ज्यादा भारी पड़ा है। जिन अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों में भारत शामिल हो चुका है उनमें महंगाई को कम करना और पड़ोसियों से लेकर अन्य देशों तक के मामलों और मुद्दों पर बहुत कुछ कर पाने की स्थिति में नई सरकार भी कितना होगी, देखने वाली बात होगी।
पड़ोसी पाकिस्तान से संचालित
आतंकवादी गतिविधियों और उनके नतीजे भारत को भुगतने की बात पर विपक्ष ने, खास कर भाजपा
ने सप्रंग सरकार को कम नहीं घेरा बल्कि नपुंसक तक कहा गया, यह भूल
कर कि पिछली भाजपानीत सरकार के समय ही शासन की घोर लापरवाही कहें या अति भरोसे के चलते देश को न केवल करगिल युद्ध को भुगतना पड़ा बल्कि सरकार को संसद पर भी हमले की भनक तक नहीं लगी।
दूसरी ओर
26/11 को मुम्बई हमले के समय की अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक में खुलासा किया है कि- 'उक्त घटना के बाद
संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी और तब के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह से उनकी मुलाकात के समय दोनों ने साफ कर दिया था कि ऐसे दूसरे हमले की स्थिति में संयम नहीं बरता जायेगा।'
ऐसे में पूरे चुनाव अभियान में देश में आतंकवादी घटनाओं के सन्दर्भ
से मोदी द्वारा बार-बार हड़काए जाने के बावजूद
सटीक उत्तर न दे पाना भी कांग्रेसी शीर्षस्थों की बड़ी नाकामी थी। कांग्रेस के पास मोती थे ऐसा तो नहीं कह सकते पर चने भी थे तो उन्हें भी तो वे नहीं बेच पाए।
11 जून,
2014
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