Tuesday, June 24, 2014

शंकराचार्य की कही

वाकिआ चालीसेक साल पहले का सादुलगंज स्थित मनसापूर्ण हनुमान मन्दिर का है जिसे अब व्यंग्य में दिए ग्रेजुएट हनुमान मन्दिर के नाम से पहचाना जाने लगा है। प्रसिद्ध गीतकार भरत व्यास के अग्रज जर्नादन व्यास इस नये बने मन्दिर के पुजारी थे। वे हर नये दर्शनार्थी से उसकी जाति पूछ कर ही प्रवेश की इजाजत देते थे। एक मंगलवार को परिचित मुमताज अली को मन्दिर की दहलीज पर घुसते देख कुछ बोलने ही वाला था कि उसने होठों पर अंगुली रख चुप रहने का इशारा कर दिया। बाहर आकर बताया कि यहां मेरी पहचान मूलचंद की है, असलियत खुल गई तो बाबे के नियमित दर्शनों से वंचित कर दिया जाऊंगा। जो पुजारी किसी दलित को मन्दिर प्रवेश नहीं करने देते वह किसी गैर हिन्दू को प्रवेश शायद ही करने दें।
यह किस्सा कल स्मरण तब हो पाया जब शंकराचार्य स्वरूपानन्द की परसों रात की पत्रकारों से बातचीत के हिस्से सोशल साइट्स पर पोस्ट होने लगे। शंकराचार्य ने शिरडी साईंबाबा की पूजा-अर्चना पर सवाल उठाए और कहा कि हिन्दुओं द्वारा उन्हें भगवान मानना विदेशी साजिश है।
भारतीय सनातन परम्परा बहुरूपी श्रद्धा आस्थाओं के लिए जानी जाती है। कोई एक श्रद्धारूप या स्थान सम्पूर्ण सनातन आस्था का केन्द्र कभी नहीं रहा। यहां लोकमानस तैतीस करोड़ देवी-देवताओं की अलौकिक उपस्थिति के साथ अनगिनत लोकदेवता हैं और उनमें आस्था रखने वालों के अपने अलग-अलग क्षेत्रफल हैं। हिन्दू देवी-देवताओं के वर्तमान रूप तो 18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी के शुरू में प्रसिद्ध चित्रकार राजा रविवर्मा के बनाए हुए हैं। सनातन परम्परा में भगवान और देवी-देवताओं का वैदिक-प्राकृतिक रूपों से पौराणिक विग्रहों में लगभग सामूहिक तौर पर बदलाव के प्रमाण उपलब्ध हैं। शंकराचार्य का उक्त एतराज उसी अविरल परम्परा में बाधा उत्पन्न करता लगता है। लेकिन यह भी है कि कोई शंकराचार्य यदि ऐसा हस्तक्षेप नहीं करें तो परम्परा में यह माना जायेगा कि वे अपने धर्म का पालन नहीं कर रहे। आदि-शंकराचार्य ने इस भारतीय भू-भाग में बढ़ती बौद्ध और जैन आस्था विधियों को चुनौती माना और चार पीठों की स्थापना कर तत्संबन्धी दायित्व सौंपे। यह बात अलग है कि वर्तमान में इन पीठों की कितनी छायाप्रतियां प्रचलित हैं और वे अपने दायित्व को किस तरह निभा रहे हैं अथवा नहीं। 'विनायक' का मानना है कि श्रद्धा और आस्था निहायत व्यक्तिगत तर्कों से परे होती है और इन्हें तो चुनौती दी जानी चाहिए और ही किसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए।
शिरडी साईंबाबा के मन्दिर में करोड़ों रुपये के चढ़ावे पर भी शंकराचार्य ने सवाल खड़े किए हैं। विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों के कितने ही आस्था केन्द्र ऐसे हैं जहां 'ऑन रिकार्ड' इससे ज्यादा चढ़ावा आता है। उस पर भी कभी इन्होंने सवाल खड़े किए क्या? शंकराचार्य स्वरूपानन्द ही क्यों अधिकांश शंकराचार्य तो खुद विवादों में रहते हैं या विवाद खड़े करते रहे हैं। वैसे भी हिन्दू परम्परा में यह कहना मुश्किल है कि समग्र हिन्दू आस्तिकों का कोई एकमात्र आस्था केन्द्र है। मानवरूप देवी-देवताओं के अलावा प्रकृति के लगभग सभी रूपों में भिन्न स्थानों और भिन्न-भिन्न कारणों से आस्था रखने वाले हिन्दू समाज के आस्थावानों को अब तो सशरीरी देवी-देवता भी आकर्षित करने लगे हैं और उनके सभी गुणों-अवगुणों को दरकिनार कर जान देने और जान लेने तक के लिए प्रेरित-दुष्प्रेरित होते रहे हैं। भारतीय सनातन परम्परा में तो नास्तिक भी प्रतिष्ठ रहे हैं और उन्हें नास्तिक रहने की अनुकूलता यही सनातन परम्परा देती है। बेहतर तो यही होगा कि व्यक्ति मानवीय और तार्किक बने, यदि कोई किसी में श्रद्धा और आस्था रखता भी है तो बिना वर्ग, धर्म और जातिगत भेदभाव के उसे उस पर कायम रहने की निर्भय और निस्संकोच छूट हो ताकि शुरू में बताए मुमताज अली के प्रसंग की तरह जहां उसे निर्मलमन से आस्था प्रकट करने की छूट मिलनी चाहिए थी वहीं उसे झूठ बोलने के लिए मजबूर किया गया। ऐसा बहुत से श्रद्धा केन्द्रों पर अब भी होता ही होगा।

24 जून, 2014

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