उत्तराखण्ड के राहत कार्यों में लगे सैनिकों और अर्द्धसैनिकों का जज्बा सलाम करने से भी ऊपर का है। वे जिन परिस्थितियों में और जिस तरह से इस काम को अंजाम दे रहे हैं उनका विवरण दंतकथाओं से कम नहीं है। बीते कल प्रतिकूलता के चलते सेना का एक हेलीकॉप्टर केदारघाटी में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। बीस जांबाजों के मारे जाने का समाचार है। जो हेलीकॉप्टर गिरा है वह भी हेलीकॉप्टरों में सबसे बड़ा था। देशवासियों की संवेदनाएं उन बीसों जांबाजों के परिजनों के साथ होने का यही समय है।
केदारघाटी हादसे के दस दिनों बाद जो खबरें नरपशुओं की करतूतों के बारे में आने लगी वह बेहद शर्मनाक है। वहां बहुत से गिरोह सक्रिय हो गये हैं और कुछ वे भी हैं जो वहां धंधे-पानी में लगे हैं। उनमें से कइयों ने अपनी भूमिका बदल ली है। साधुवेश में एक गिरोह भी पकड़ा गया है जिसके पास से सवा करोड़ के आभूषण और नकदी बरामद हुए हैं। अलावा इसके अकेली रह गई युवतियों और किशोरियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं भी रिपोर्ट हुई हैं। दिल दहला देनी वाली कुछ घटनाएं भी उजागर हुई जिनमें अभिभावकों के साथ की इन किशोरियों को असामाजिक तत्त्व हथियारों से डरा कर ले गये और उनके साथ दुष्कर्म करके मार दिया। महिलाओं के कुछ शव ऐसे भी मिले जिनकी अंगुलियां कटी हुई हैं। संभवतः अंगूठिया निकालने के लिए ऐसा किया गया हो। कुछ व्यापारियों ने खाने-पीने के सामान को वाजिब दर से सौ गुणा तक बेचा!
उक्त सब यहां बताने के मानी यह कतई नहीं है कि दुनिया में सब बुरे लोग ही हैं। अधिकांश लोग भले हैं और विपदा में भी वे भले बने रहे। उनके सहयोग के किस्सों को भी सेना के काम से कम वजन नहीं मिलना चाहिए। वहां के अधिकांश बाशिन्दों ने जिन्होंने अपनी क्षमता से ज्यादा इन यात्रियों की न्यूनतम जरूरतों को पूरा किया ऐसे हजारों उदाहरण हो सकते हैं। जबकि खुद उन्हें सम्हलने में महीनों और कइयों को सालों लग जाएंगे। बुरे किस्से जब आने लगे तो वहां के बाशिन्दों को बहुत शर्मिन्दगी महसूस हुई और इसे काउन्टर करने के लिए उन्हें यह तक कहना पड़ा कि वहां तीर्थयात्रियों से संबंधित रोजगारों में लगे लोगों में से अधिकांश वहां के बाशिन्दे नहीं हैं। ये सभी देश के अन्य इलाकों से यहां आए हुए हैं।
मनुष्य की प्रकृति है कि वह बुरे से बुरे अवसर और घटना से निकल कर अपने को सहज लेता है। साल-छह महीनों में इस आपदा से पीड़ित भी लगभग सामान्य हो जाएंगे। वे भी जिन्होंने अपना सबकुछ खो दिया। यदि मनुष्य की यह प्रकृति नहीं होती तो यह दुनिया मात्र अवसाद की दुनिया होती।
इस युग को सभ्य समाज का तमगा देना तो पिछले सभी युगों के समाजों को असभ्य कहना हो जायेगा। मानव सभ्यता के सभी समाज समय-परिस्थिति के हिसाब से सभ्य कहे जा सकते हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो अन्य कई लुप्त प्रजातियों की तरह यह मनुष्य जाति भी लुप्त हो जाती। क्योंकि इस प्रजाति के पास जो मस्तिष्क है असभ्य होने पर ज्यादा घातक होता है। हां, ज्ञान और सूचनाओं के मामले में प्रत्येक युग के समाज को अपने पिछले युग के समाज से आगे मान सकते हैं। लेकिन क्या यह भी नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान और सूचनाओं की यह सारी युक्तियां मनुष्य को कम सभ्य बनाने की गुंजाइश नहीं देती? जिस तरह कुछ समाज समूह अपने को अन्यों से श्रेष्ठ कहने से नहीं चूकते, ठीक इसी तरह प्रत्येक युग के लोग अपने को पिछले से ज्यादा सभ्य मानने से भी नहीं चूकते।
उत्तराखण्ड की बुरी घटनाएं यह बताती हैं कि हर सभ्य युग में सभी तरह के लोग हुए हैं सभी बुरे हो जाते तो सभ्यताओं में निरन्तरता रहती क्या? जरूरत समय निकाल कर इन सभी तरह की बातों-घटनाओं पर विचारने की है, और यह भी कि हम और ज्यादा सभ्य कैसे हो सकते हैं? इन्हीं पचास वर्षों में अपने देश में इस तरह की कई आपदाएं आई हैं जिन्हें पीछे धकेल कर आज हम यहां तक आए हैं। पिछली सदी के आखिरी दशक का इसी उत्तराखण्ड का भूकम्प..... फिर लातुर का और.... कच्छभुज का भूकम्प... ये कोई कम आपदाएं नहीं थी!
26 जून,
2013
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