Wednesday, June 19, 2013

सूरसागर या सीप

सूरसागर पर बहार है, मानों अगले चुनाव के वोट रूपी मोती इसी सागर में निपजेंगे। ऐसी उम्मीदें बनने के पुख्ता कारण भी हैं। 2008 के विधानसभा चुनावों में शहर की चुनावी फिजां को बदलने में इस सूरसागर का भी योगदान रहा और दोनों सीटें भाजपा की झोली में चली गईं, यह बात दीगर है कि यह सूरसागर चुनाव बाद से बेरौनक रहा और कई दिनों तक दोनों पार्टियों में इसे लेकर आपसी जोर आजमाइश भी चलती रही। इस चुनावी साल में फिर इसकी रौनक लौटाने के प्रयास हुए हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि पिछली बार की तरह जनता का पैसा फिर पानी के साथ ना उड़ जाए। वैसे सूरसागर को साफ पानी से भरना लगभग टेढ़ी खीर है फिर भी आमजन के पास ऐसी उम्मीदों को हरा बनाए रखने के अलावा चारा ही क्या है।
कल कल्लाजी ने सूरसागर पर अपने नाम का एक भाटा और लगा दिया और छिछले पानी में नौकायन भी कर लिया। जिन्होंने रेगिस्तान में इस सूरसागर की कल्पना की और इसका निर्माण करवाया उनके नाम का कोई भाटा पिछले पचास सालों में तो नहीं देखा गया। नगर विकास न्यास ने इस खुशी को आमजन से साझा करने और उन्हें जुटाने के लिए सुरेन्द्र शर्मा की ठिठोली का आयोजन भी रखा। यह बात अलग है कि शर्मा की अधिकांश ठिठोलियां देश के कुल मतदाताओं में से आधी महिलाओं का मजाक बना कर पुरुषोचित हेकड़ी को ही गुदगुदाती है। यह तो देश की स्त्रियां अभी सावचेत नहीं हैं अन्यथा ऐसे कार्यक्रम स्त्रियों के वोट काटू भी साबित हो सकते हैं।
रात को जहां न्यास ने सूरसागर उत्सव आयोजित किया वहीं उसी मंच पर आज वसुन्धरा राजे कांग्रेस की सरकार को कोसेंगी। जिले के भाजपाइयों के लिए यह आयोजन जीवन-मरण का प्रश् हो गया है। जमकर तैयारियां हो रही हैं तो खुल कर दावे भी हो रहे हैं। वसुन्धरा की सभा में 30 से 50 हजार तक लोगों के आने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं। हो सकता है लोगबाग इससे ज्यादा भी जाएं! पर दावे करने वालों को यह भी देखना चाहिए कि जिस स्थान का चयन किया है, वहां उतने लोग समा भी सकेंगे या नहीं। सामान्यतः माना जाता है कि बैठने के लिए चार वर्गफुट जगह प्रतिव्यक्ति की दरकार होती है और खड़े को तीन वर्गफुट की। इस हिसाब से वसुन्धरा की आज की सभा के स्थान पर शार्दूलसिंह सर्किल की ओर वाले सिरे तक मंच से दीखने वाली सड़क पर ठसाठस होकर भी तीस हजार लोग समा सकेंगे या नहीं, विचारणीय है।
राजनेताओं से लगातार कम होती जा रही उम्मीदों के इस युग में इस तरह की सभाओं में जाने को आमजन कितने उत्सुक होंगे कहना मुश्किल है। हां, जिन्हें अपने-अपने लाभ ऐसे आयोजनों में दीखते हैं, वे जरूर वहां होंगे। ऐसी सभाओं में आमजन की भागीदारी पिछली सदी के आठवें दशक बाद से लगातार कम होती गई है। जो भी भीड़ होती है वह आयोजकों के द्वारा मैनेजकी गई ही होती है। अन्यथा सात-आठ लाख के इस शहर में इसी जूनागढ़ के सामने हाल ही में हुई अन्ना हजारे की सभा का भीड़ के मामले में क्या हश्र हुआ था किसी से छुपा नहीं है।

19 जून, 2013

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