नरेन्द्र मोदी ने जब से खुदो-खुद भाजपा का ‘पीएम इन वेटिंग’ घोषित किया है, तभी से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व डाफाचूक की मनःस्थिति में है। कुछेक सुषमा स्वराज जैसे बड़े नेता तो ‘कांई लगाऊं-कांई लगाऊं’ की मुद्रा में देखे जा सकते हैं। रही बात राजनाथसिंह की तो वे दुबारा मिली इस जिम्मेदारी को पिछली बार की तरह नाकाम होते नहीं देखना चाहते। उन्हें जहां कहीं जैसी भी उम्मीद की किरण दिखाई दे जाए उसे तुरन्त लपक लेने की हड़बड़ी में देखा जा सकता है। फिर चाहे नरेन्द्र मोदी के ‘पीएम इन वेटिंग’ के चतुराई पूर्ण ‘हाव-भाव’ को मान्यता देना हो या फिर राजस्थान में वसुन्धरा राजे की सामन्ती मुद्रा को स्वीकार करना। पाठकों को याद होगा कि राजनाथसिंह के पिछले अध्यक्षीय काल में इन दोनों से उनके सम्बन्ध छत्तीस के थे। वसुन्धरा से राजनाथ का भांगा बदमजगी के साथ ही हुआ था। लेकिन अबकी मुुखिया बनते ही सबसे पहले उन्होंने वसुन्धरा को उनके नाज-नखरों सहित स्वीकार किया। इस स्वीकार्यता में मौके की नजाकत भांप वसुन्धरा द्वारा अपने मिजाज में बरती नरमाई भी उल्लेखनीय है। गुलाबचन्द कटारिया, अरुण चतुर्वेदी और कैलाश मेघवाल की बदली भूमिका इसकी बानगी है। यह दीगर बात है कि वसुन्धरा 2003 जैसा जादू प्रदेश में जगा नहीं पा रही हैं।
राष्ट्रीय परिदृश्य में नरेन्द्र मोदी और राजनाथसिंह के इस नए मेल में राजनाथ की तुलना लोक में प्रचलित एक अक्खाणे के उस कबूतर से की जा सकती है जिसमें मुंडेर पर बैठे किसी कबूतर को ‘बोछरड़े’ किशोर आईने से चिलका दिखाकर पटक लेते हैं। मोदी ने अपने ‘पीआर प्रबन्धन’ के कांच से राजनाथ को भी आडा ले लिया। मोदी इसी युक्ति को व्यापक तौर पर गुजरात के मतदाताओं पर सफलतापूर्वक आजमाते रहे हैं। मोदी के चिलके से चकराए राजनाथ दूसरी बार अध्यक्ष बनने के बाद से ही सामान्य नहीं हुए हैं।
पार्टी अध्यक्ष की स्थिति से पार्टी के अधिकांश शीर्ष नेता परेशानी महसूस कर ही रहे हैं। देश के पहले पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी भी कम आकळ-बाकळ नहीं हैं। हालांकि आडवाणी अपने को इस दौर में ‘पीएम इन वेटिंग’ की भूमिका में तो प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं लेकिन पार्टी के हालिया-मुखड़े से उपजी अपनी असहजता को आडवाणी छुपा भी नहीं पा रहे हैं। शिवराजसिंह-नरेन्द्र मोदी पर हाल ही का उनका तुलनात्मक विश्लेषण इसका प्रमाण भी है। आडवाणी कहते वक्त इतनी भाषागत सावधानी जरूर रख रहे हैं कि उनके कहे का कुढ़नीय मानी कहीं ना ले लिया जाय। उनका विश्लेषण घर के बड़े-बुजुर्ग के कहे मानिंद ही होता है। सही भी है, अस्वस्थ अटल बिहारी वाजपेयी की निष्क्रियता के चलते ऐसी जिम्मेदारी आन जो पड़ी है। वैसे वाजपेयी की सक्रियता के चलते मोदी स्वयंभू की भूमिका में आने की हिमाकत शायद ही करते!
4 जून,
2013
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