Friday, June 7, 2013

शिक्षा ऋतु

ऋतुओं को छह भागों में बांटा गया है हमारे यहां--ग्रीष्म, पावस, शरत, हेमंत, शिशिर और वंसत। प्रकृति पर बाजार हावी हुआ तो उसने अपने वर्ष में अलग से ऋतुएं सृजित कर ली। बाजारू कैलेंडर में फिलहाल शिक्षा का मौसम चल रहा है। मीडिया का आक्सीजन सिलेण्डर अब बाजार के पास है। टीवी के खबरिया चैनल हों या खबरिया अखबार सभी में शिक्षण संस्थानों की बहार है। इन दिनों पिछले सत्र के परिणाम रहे हैं तो नये सत्र के दाखिले चालू हैं। शिक्षा का बाजार लग गया है, हर दुकानदार अपने बूते और पोटी अनुसार ग्राहकों (छात्रों और उनके अभिभावकों) को मोहने में लगा। स्कूलें, कोचिंग इंस्टि्ट्यूट और फाउण्डेशन कोर्स करवाने वाले अपने-अपने संभावित ग्राहकों की ताक और तलाश में हैं। सरकारों ने भी लगभग मान लिया है कि यह काम हमारे बस का नहीं है सो निजी क्षेत्र में सभी तरह के शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों को खोलने की स्वीकृतियां रेवड़ियों की तरह बांटने लगी हैं।
सरकारी या कहें सार्वजनिक क्षेत्र के इन संस्थानों का कुल बजट निजी क्षेत्र के सभी शिक्षण संस्थानों के कुल बजट से आज भी कई गुना अधिक होगा और यह भी कि निजी क्षेत्र के शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों से ज्यादा दक्ष शिक्षक और कर्मचारी सरकारी क्षेत्र में होंगे। बावजूद इसके अधिकांश सरकारी संस्थान पंगु अवस्था में हैं। बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सरकारी संस्थानों के नियंता तो इस दुर्गति के लिए रोष की रस्म अदायगी भर करते भी नहीं देखे जाते और अफसोस का बड़ा कारण यह कि जिस आम-आवाम के पैसे से यह सरकारी संस्थान घिसट रहे हैं, उसे इस फिजूलखर्ची की परवाह तो दूर इसका भान तक नहीं है।
चार-पांच दशक पहले शहर के जिन स्कूल-कॉलेजों में दाखिले को छात्र लालायित और अभिभावक आकांक्षी होते थे वे सभी संस्थान जिस गत को प्राप्त हो गये हैं वह किसी से छुपा नहीं है। छात्रों के लिए सादुल स्कूल, फोर्ट स्कूल, सिटी स्कूल, चौपड़ा स्कूल और तीसरी बार आत्मान्तरित सादुल स्पोटर्स स्कूल तथा छात्राओं के लिए महारानी लेडी एल्गिन स्कूल की दुर्गतियों का जिक्र तक नहीं होता है।
प्रदेश के स्कूली शिक्षा के दोनों मुख्यालय बीकानेर में है। आए दिन इन मुख्यालयों की खबरें सुर्खियां पाती हैं। इन सुर्खियों में शिक्षा और बिगड़े शैक्षिक वातावरण की चर्चा सिरे से गायब हैं। कर्मचारी और शिक्षकों के पचासों संघ अपनी मांगों को लेकर या उनकी अपनी अनुकूलताएं बनी रहें इसलिए सक्रिय रहते हैं। अखबार वाले या तो अपने ज्ञान के अभाव में या मतलब से किसी को शिक्षाविद् का तमगा थमा देते हैं तो किसी को कर्मचारी नेता या शिक्षक नेता का। इन स्कूलों के शैक्षिक वातावरण और साख को लेकर तथाकथितविदोंऔर नेताओं की पिछले वर्षों में एक भी चिन्ता अखबार की कभी सुर्खीयां बनी हो तो बताएं?
हम मीडिया वाले शायद ऐसा चाहते भी नहीं हैं। आम-आवाम के धन से चलने वाले इन स्कूलों की साख लौट भी आएगी तो वे कौन-सा विज्ञापन देने वाले हैं। शिक्षा महकमे का अवदान तो सनसनीखेज खबरों का कम है क्या, खबरें ना भी बनें तो घड़ी भी जा सकती हैं। रही बात विज्ञापनों की, सो निजी शिक्षण संस्थान फलते-फूलते रहेंगे तभी वे मिलेंगे। समाज और उसका सार्वजनिक धन जाए भाड़ में....!

7 जून, 2013

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