Monday, June 24, 2013

हिमालयी आपदा : आत्मावलोकन की जरूरत

जून के मध्य में हिमालय की पहाड़ियों पर बादल फटने और जबरदस्त बारिश होने के कारण लगभग पूरे उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में ना केवल जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया बल्कि हजारों की संख्या में जनहानि की आशंकाएं भी हैं। पशु-पक्षी, पेड़-पौधों की सुध तो कोई ले ही नहीं रहा है।
कुछेक को छोड़ दें तो अधिकांश मीडिया इस आपदा के लिए प्रकृति को कोसने से नहीं चूक रहा है और साथ ही शासन-प्रशासन को भी लबड़-धक्के ले रहा है। खबरों और रिपोर्टों का केन्द्रीय भाव यही है कि इन पहाड़ों ने, इस बारिश ने कितनी जानें ले लीं और कितनों को कैसी-कैसी विपदाओं से गुजरना पड़ा है। एक भी खबर  या रिपोर्ट ऐसी नहीं देखी गई जिसमें यह बताया गया हो कि पशु-पक्षी और वनस्पति का नुकसान कितना हुआ है। मनुष्य के घोर स्वार्थी होते चले जाने की यह बानगी-भर है। जबकि इनके बिना मनुष्य का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। मृतकों के परिजनों और पीड़ितों के प्रति पूरी संवेदना के साथ यह बताने में गुरेज कैसा कि इस तरह की विपदाओं के बड़े जिम्मेदार हम खुद ही हैं। हिमालय को सबसे नया और कच्चा पहाड़ माना जाता है। कहा भी जाता है कि पहाड़ों में हिमालय युवा है। इन पहाड़ों पर भू-स्खलन आए दिन वैसे ही होता रहता है और बारिश में वह और भी बढ़ जाता है। पहाड़ों को जोड़े रखने वाले पेड़ों की कटाई सारे नियम-कायदों के बावजूद धड़ल्ले से हो रही है। नदियों के किनारों पर गैर कानूनी निर्माण हो गये हैं, पहाड़ी वास्तु का खयाल रखना बिलकुल छोड़ दिया गया है। विशेषज्ञों की सारी चेतावनियों के बावजूद हिमालयी क्षेत्र में बड़े-बड़े बांध बन गये हैं। इन बांधों में पानी की गाद (मिट्टी) जमा होती है और इस मिट्टी को सफाई के नाम पर एक साथ नदी में ही बहा दिया जाता है। अन्यथा यह जो मिट्टी अपनी प्रकृति से मैदानी इलाकों तक जाकर उसका उपजाऊपन बढ़ाती थी वही अब बांधों से एक साथ निकाल देने से नदी की गहराई को कम कर देती है और पीछे से आया ज्यादा पानी किनारों पर सुनामी पैदा कर देता है। सुनामी की इस ऊंचाई को बढ़ाने के लिए नदी किनारे बने भवन, खड़ी गाड़ियां और अन्य साजो सामान भी बड़ा कारण होते हैं। हजारों सालों से नदियां अपने रास्ते पर है। अपने स्वार्थों के वशीभूत हम ही उनके रास्तों में बाधा खड़ी करते हैं और भुंडाएंगे हम नदी, पहाड़ों को! इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा कह सकते हैं।
सनातन संस्कृति में इन तीर्थों का अपना महत्त्व था, तीर्थाटन को कभी बड़ा दुर्लभ माना जाता था। अभी सौ-डेढ़ सौ साल पहले तक चारधाम तो क्या जीवन में हरिद्वार जाना भी सबके लिए संभव नहीं था। पहाड़ों को छील-छील कर पूरे हिमालय क्षेत्र में सड़कें बना दी गई हैं। लोग-बाग तीर्थाटन के लिए कम पर्यटन और मौज-मस्ती के लिए ज्यादा जाने लगे हैं। केदारनाथ के गौरीकुण्ड और बद्रीनाथ में प्रतिवर्ष चौपहियों की तादाद इतनी बढ़ रही है कि कई किलोमीटर पहले ही गाडियां पार्क करनी पड़ती है। हैलिकॉप्टर दिन-भर धड़धड़ाते उतरते-उड़ते हैं। लोग-बाग इतने जाएंगे तो होटलें भी होंगी और ये होटलें ऐन नदियां के घाटों तक बन गये हैं। जाने वाले खाएंगे-पीएंगे तो प्लास्टिक के थैले-थैलियां और बोतलें भी होंगी। ये बोतल, थैलियां नदी में बहाई जाती हैं और पानी बढ़ेगा तो भवन और गाड़ियां भी बहेंगी ही।
पूरे हिमालय क्षेत्र में एक भी पर्यटन स्थल (इन्हें अब तीर्थ कहना तो आंखें मूंदना होगा) ऐसा नहीं है जहां सिवरेज की समुचित व्यवस्था हो। इन बेशुमार पर्यटकों का जो अपने को तीर्थयात्री कहते हैं, इनका मल-मूत्र, जूठन और कपड़े का सारा मैल इन्हीं नदियों का हिस्सा बनता है। जिन गंगा-जमुना को हम मां कहते आएं हैं उसकी दुर्गति की चिंता तो छोड़ों, कभी बातचीत का हिस्सा भी नहीं बनाते हैं। स्वार्थों में हम इतने अंधे हो गये हैं कि अपनी उसी गंध का हर-हर गंगे कहके आचमन भी करते हैं और बोतलों और केनों में भर भर कर घर लाते हैं। मौके-टौके तथाकथित अपवित्रों को पवित्र करने को इसका छिड़काव भी करते हैं!
शासन-प्रशासन को निकम्मा कहना भर समस्या का हल नहीं है। इन्हें चलाने वाले भी आप और हम में से ही हैं तो फिर उनसे बेहतर होने की उम्मीद हम किस दम पर करते हैं?

24 जून, 2013

1 comment:

Unknown said...

Shri deep ji,

Aapke Iss nihit hi saargarbhit, tathyatmak lekhan par hamhe mod hai parantu saath hi ataamvlOkan ki prerna yahan udit hoti hai shreyaskar evam saarthak hai.

Karan sarvvidit hai ki Ganga ji ke pahadi ilako darro gahtiyo se lekar maidani ilako ke ghato tak atikaraman chahe kisi bhi swaroop mein ho , vyapt hota jaa raha hai, stya hai ki abhi aatmavlokan ki nitant avaskyakta hai.