1972 में मनमोहन देसाई की एक फिल्म आई थी ‘भाई हो तो ऐसा’। जितेन्द्र, हेमा और शत्रुघ्न फिल्म में किन-किन भूमिकाओं में होते हैं, वह तो इसलिए पता नहीं क्योंकि फिल्म देखी नहीं थी। हां, इतना पता है कि पर्दे पर जितेन्द्र का नाम भरत होता है और शत्रुघ्न का राम। भारतीय समाज में राम और लक्ष्मण के अलावा दो भाइयों के बीच यही मिथकीय आदर्श रिश्ता माना जाता है। इस फिल्म के आने से कई वर्ष पहले से बीकानेर में जरूर बड़ा भाई छोटे के लिए उल्लेखनीय भूमिका निभा रहा था। डॉ. बीडी कल्ला ने ‘भाईसा’ जनार्दन की देखा-देखी छात्र राजनीति करने की इच्छा जताई वह भी पुष्करणा होते हुए डूंगर कॉलेज में। जनार्दन कल्ला ने इसे चुनौती के रूप में लिया, क्योंकि तब डूंगर कॉलेज में राजपूत और जाटों का ही बोलबाला था। आजकल जिसे ‘डिनर डिप्लोमेसी’ कहा जाता है, जनार्दन ने राजनीति में पिछली सदी में तब ही शुरू कर दी थी। उस भोज राजनीति में बने रिश्ते लगभग चालीस वर्ष तक निभाए गए, बाद में क्यों दरके यह भी उल्लेख का हेतु हो सकता है। तब भी जनार्दन कल्ला की ही चाल और चतुराइयों के चलते डॉ. बीडी कल्ला छात्रसंघ का चुनाव जीत पाए और तब से ही बीडी कल्ला राजनीति के रुतबाई पेशे की हसरत अन्दर ही अन्दर पाल चुके थे। लेकिन आत्म विश्वासहीनता (जो अब भी उनमें देखी जा सकती है) के चलते मैदान में कूदने का साहस नहीं कर पाए। बीडी को तब मक्खन भाईजी, बहनोई गोपाल जोशी और भाईसा जनार्दन कल्ला की हैसियत बहुत बड़ी लगती थी। पिछली सदी का आठवां दशक ऐसा था भी। आठवें दशक में इन तीनों का ही सामना करने से बीडी या तो बचते थे या सहम कर ही मिलते थे।
पिछली सदी के इसी आठवें दशक के मध्य में बीडी रामपुरिया कॉलेज में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हो गये थे। बीडी अच्छे अध्यापक होने के नाते कम और बहुरुपियाई वेश-भूषा के कारण ज्यादा ध्यान खींचते थे। छपास यानी अखबारों में नाम छपवाने की हूक कल्ला में तब भी थी। इसके लिए राष्ट्रीय सेवा योजना जैसा एक माध्यम था उनके पास। लेकिन उन्हें वह पर्याप्त नहीं लगता था सो उन्होंने ‘बीकानेर उपभोक्ता मंच’ जैसे कई जेबी संगठन खड़े किए और विज्ञप्तियां बना कर अखबारों में भिजवाने लगे। लगभग उन्हीं वर्षों में जनता पार्टी का प्रयोग असफल हो गया, सरकार गिर गई और इन्दिरा गांधी का पुनरोदय हुआ। सन् 1980 में लोकसभा के मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो गई। बीडी के महाविद्यालयी सहयोगियों ने बीडी की लालसाओं को हवा दी। तब के कांग्रेसविरोधी इन व्याख्याताओं द्वारा ऐसा करने के अपने मकसद भी थे। सहयोगी बीडी कल्ला भी खुश और स्थानीय कांग्रेस में भी घोंचेबाजी-वे तो इन दोनों ही मकसद में सफल हुए। साले-बहनोई (कल्ला बन्धु और गोपाल जोशी) के बीच 1977 के विधानसभा चुनावों में टिकट मांगने के मसले पर पड़ी फांक और गहरा गई जो अब तक कायम है। और दूसरा मकसद यह भी कि जनप्रतिनिधि के रूप में नाकाबिल होते हुए भी बीडी कल्ला वर्षों तक सत्ता-भोगी बने रहे। हो सकता है इस भोग का अवसर आगे उन्हें फिर मिल जाए। बीडी कल्ला ने 1980 के चुनावों में तब अपने उन मित्रों की सलाह पर ही कांग्रेस से बीकानेर क्षेत्र लोकसभा सीट की उम्मीदवारी की दावेदारी कर दी। ‘तोप का लाइसेंस मांगने पर पिस्टल का मिलता है’ कैबत की तर्ज पर बीडी की इस दावेदारी पर शहर में हंसी-ठट्ठे भी हुए, खासकर गोपाल जोशी के खेमे में। पर बीडी डटे रहे, विचलित नहीं हुए, उनकी नजर तो इसके बाद में होने वाले विधानसभा चुनावों पर थी। बीडी के इस निर्णय से जनार्दन भी हतप्रभ हुए, बीडी को वे तब ‘बुला’ कहकर सम्बोधित करते थे। इस दावेदारी से कल्ला शहर राजनीति में चर्चा में आ गये। बीडी का यही स्वांग उनके बाद के राजनीतिक पेशे का मुख्य आधार बना। जबकि 1977 के विधानसभा चुनावों के टिकट प्रकरण के बाद जनार्दन कल्ला 1980 के विधानसभा चुनावों में बीकानेर शहर से कांग्रेस की टिकट लेने की हैसियत में आ गये थे। लेकिन छोटे भाई ‘बुले’ के अति उत्साह को देखकर जनार्दन ने अपनी इच्छा को तब होम दिया था।
क्रमशः
9 मई, 2013
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