Saturday, May 11, 2013

कल्ला बनाम कल्ला-चार


मंत्री बनते ही बीडी कल्ला सामन्ती मुद्रा में गये थे। वर्षों से पाली हुई इच्छा की पूर्ति जो हो गई। अपने से प्रत्येक कमजोर को वे हेठा समझने लगे। जैसा कि होता है इस तरह की मानसिकता वाले अपने से बलि के आगे दण्डवत भी रहते हैं। इन दोनों प्रकार की मुद्राओं से शहरवासी सैकड़ों बार रू--रू हुए हैं। बीडी कल्ला सत्तासुख हासिल होने के बाद अधिकांशत जयपुर ही में रहने लगे। बीकानेर आते तो आम आवाम से मेळजोळ नहीं रखते। शहर की सड़कों से वातानुकूलित गाड़ियों से गुजर जाते। बीडी तक पहुंच कुछ चापलूसों की ही रह गई! इसके चलते जिसे भी अपने हित बीडी से सधते दीखते वे जैसे-तैसे चापलूसों की जमात में शामिल होते-जाते। इनमें कुछ तो अपने-अपने कारणों से बदलते रहते हैं तो कुछ आज भी बरसों से जमे हैं। मंत्री बनने के कुछ समय बाद से ही बीडी कल्ला में साहब कहलाने की धुन चढ़ी, बाकायदा चापलूसों को हिदायत दी गई कि बुलाकीजी या कल्लाजी कह करसाहबही सम्बोधित करें। और तो और स्वयं जनार्दन कल्ला भी साहब कहने लगे!
बीडी कल्ला की स्थिति यह हो गई कि शहर में जो काम बारी से होने हों उनमें भी वे इसलिए हस्तक्षेप करने लगे कि उनके या उनके चापलूसों को इससे क्या लाभ हो सकता है। यानी होते कामों में प्राथमिकता जनहित या जनसुविधाएं नहीं रही, इसका सबसे बड़ा उदाहरण शहर का परिवहन कार्यालय है जिससे आम जनता का रोज काम पड़ता है। कल्ला तो बस स्टैण्ड ही एमएम ग्राउण्ड जैसी छोटी जगह पर बनवाना चाहते थे लेकिन कुछ जागरूक लोगों के चलते वे ऐसा संभव नहीं कर पाये। फड़ बाजार का मुहाना चौड़ा करवाने में भी भींचा-भींची हो गई। ऐसे अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं।
शहरी विकास को छोड़ कर बीडी को चुनाव जितवाने सहित सभी अन्य काम जनार्दन कल्ला के जिम्मे मान लिए गए। जनार्दन कल्ला भी कई दबावों में काम करने लगे। सबसे बड़ा दबाव तो पिछले चुनावों में लगे संसाधनों का पुनर्भरण और अगले चुनावों के लिए संसाधन इकट्ठा करना हो गया। यही एक काम इतना बड़ा हो गया कि शहर के विकास से सम्बन्धित सभी जिम्मेदारियां उन्होंनेसाहबपर छोड़ दी औरसाहबइसके लिए कभी फुरसत निकाल ही नहीं पाए? यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शहर के विकास को लेकर उनके मन में दृष्टि थी और ही कोई आयोजना! ज्यादा बेहतर तो यह होता कि जनार्दन 1980 में अनुज मोह में नहीं आकर स्वयं दावेदारी करते तो वह इस शहर को लेकर अन्य जिम्मेदारियां भी बखूबी समझते। इसके बजाय वे विकास सम्बन्धी जिम्मेदारियांसाहबपर डाल कर खुद उससे मुक्त हो गये।
जनार्दन कल्ला बीडी कल्ला की तरह एकांगी सोच के कभी नहीं रहे हैं, वे बहुफितरती रहे हैं। अखाड़े में जोर आजमाते तो मैदान में फुटबाल को किक मारते। छात्र जीवन में बिना घरेलू माहोल के राजनीति करने लगे तो राजनीति में येन केन प्रकारेण हासिल करने की कूव्वत भी रखते। जनार्दन कल्ला ने अनुजहित में कभी कोई पदाकांक्षा नहीं की, वे शहर कांग्रेस अध्यक्ष भी नहीं बनते यदि कोई अध्यक्षसाहबकी टिकट दावेदारी में बाधा नहीं बनता। एक समय तो ऐसा था जैसे जनार्दन के सारे कार्य-कलापों का हेतु बीडी कल्ला ही हो गये हों!
बीडी कल्ला की युवावस्था जनार्दन की तरह बहुआयामी नहीं रही। केवल और केवलसाहबी सोचऔर अनुकूलता मिलते ही उसे हासिल करने की लालसा के अलावा उन में कुछ भी देखा नहीं गया।
इन दो भाइयों की जुगलबन्दी शहर के लिएदो मामाओं में भानजे के भूखे रहनेमें तबदील हो गयी। सब कुछ गुड़ी-गुड़ी होता तो कल्ला बत्तीस सालों के सात चुनावों में से दो में हारते नहीं और अगले विधानसभा चुनाव के लिए वे सब पापड़ नहीं बेलते जो वे अभी बेल रहे हैं। सत्य यह भी है कि अगर जनार्दन कल्ला जैसा पारंगत चुनाव प्रबंधक उन्हें मिला होता तो अपने बूते बीडी शायद एक भी चुनाव नहीं जीत पाते 63 पार की इस उम्र में बीडी कल्ला एक जनप्रतिनिधि की कूव्वत अपने में पैदा कर पाएंगे? कहना मुश्किल है कहना यह भी मुश्किल है कि 70 लगभग के जनार्दन अपने भीतर जनप्रतिनिधि होने की इच्छा पुनः जगा पाएं! हालांकि 80 के लगभग के उनके बहनोई गोपाल जोशी अगले चुनावों के लिए पुनः डण्ड पेल रहे हैं।
समाप्त
11 मई, 2013

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