2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ उम्मीद की किरण बने अन्ना हजारे आज शाम बीकानेर में होंगे। अन्ना अपने मिशन के तहत राजस्थान यात्रा पर हैं। 2011 वाला उत्साह कहीं देखने में नहीं आ रहा है तो क्या लोगों की उम्मीदें टूट चुकी हैं? यों तो अन्ना अपने क्षेत्र महाराष्ट्र में वर्षों से सक्रिय रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां उन्हें 2011 में तब मिली जब उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश के आम आवाम की उम्मीदें हरी की थी। ‘विनायक’ सांध्य दैनिक आरम्भ से ही अन्ना के उद्देश्य और उनके तौर तरीकों पर ‘अपनी बात’ के इस कॉलम में चर्चा-विमर्श करता रहा है। इस मौके पर समय-समय पर लिखे सम्पादकीय अंशों को किंचित् सम्पादन के साथ पुनः प्रकाशित करना जरूरी समझता है।
‘जनलोकपाल बिल के लिए चल रहा आन्दोलन जो असल में भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन है—आज अन्धेरे चौराहे पर खड़ा नजर आ रहा है। एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सम्भव से ज्यादा की उम्मीद करना असफलता को निमन्त्रण देना है।....
बड़े पैमाने पर मिल रहे जन समर्थन से शायद टीम अन्ना के नीतिनिर्धारक यह भूल रहे हैं कि हम जिनके खिलाफ लड़ रहे हैं वो चाहे कितने भी भ्रष्ट हों,
आये तो एक लोकतान्त्रिक तरीके से चुन कर ही हैं। अलावा इसके हर निर्णय की एक प्रक्रिया भी तय है। टीम अन्ना को इस पर भी विचार करना चाहिए। अन्यथा जन सैलाब यदि निराश होगा तो बड़ी जिम्मेदारी टीम अन्ना की भी मानी जायेगी।’
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अगस्त, 2011
‘अन्ना टीम की महत्त्वपूर्ण सदस्य किरण बेदी ने कल मंच पर जिस तरह का दृश्य उत्पन्न किया वह निराशा और कुंठा की उपज थी—ऐसी घोर निराशा और कुण्ठा तभी उपजती है जब आप अतार्किक उम्मीदों पर अड़े रहते हैं।
...अन्ना खुद निर्मलमन और मासूमियत लिए तो हैं लेकिन किसी भी बड़े आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले का वैचारिक आधार पुख्ता होना जरूरी होता है, अन्यथा उसके बिखरने के खतरे बने रहते हैं। महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण इसके उदाहरण हैं, जिनके अपने वैचारिक आधार थे। यदि ऐसा होता तो अन्ना टीम के चेहरों पर निराशा और व्यवहार--बोल-चाल में कुण्ठा नहीं आती।’
--27
अगस्त, 2011
‘कल अन्ना फिर दिल्ली में एक दिन के अनशन पर थे। इस बार अन्ना के आन्दोलन की बेल ने योग प्रशिक्षक रामदेव को सहारे का तना माना है। क्या रामदेव भी तने की भूमिका निभा पाएंगे जिनकी मंशा अपने व्यापार को फलाने-फुलाने के लिए केवल सुर्खियां बटोरना भर है। रामदेव के ट्रस्टों पर आये दिन अनियमितताओं के आरोप लगते रहे हैं।
इन्हीं सब के चलते भ्रष्टाचार से धाए इस देश के आम-आवाम की उम्मीदों के तिरोहित होने में देर नहीं लगी। अन्ना फिर कल जब नई दिल्ली में संसद के पास रामदेव के साथ बैठे तो न तो लोगों में पिछले वर्ष अप्रैल और अगस्त जैसा उफान था और न ही उनमें वैसा उत्साह।
...लगता है अन्ना के पास विचार और विवेक का अभाव है। गांधी ने कहा है कि बिना शुद्ध साधनों के शुद्ध साध्य की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसा भाव न तो खुद अन्ना में है और न ऐसी प्रतिबद्धता टीम अन्ना में। रामदेव का मकसद केवल अपना व्यापार करना भर है। अतः उनसे कोई बड़ी उम्मीद करने का कोई हेतु नजर नहीं आता।’
--4
जून, 2012
‘...अन्ना और उनकी टीम के पास न तो आन्दोलन को लेकर कोई दृष्टि है और न ही कोई ठोस कार्यक्रम। इससे जाहिर होता है कि बिना गांधी को पूरा समझे गांधीवादी होना कितना निराशा पैदा करने वाला हो सकता है।
भ्रष्टाचार में लगभग आकण्ठ डूबी देश की इस व्यवस्था से धाये लोगों ने अन्ना में उम्मीद की रोशनी देखी थी। टीम अन्ना की अपरिपक्वता के चलते आमजन को इस तरह निराशा देना अच्छा संकेत नहीं है। यह नाउम्मीदगी भविष्य के ऐसे ही किसी सकारात्मक प्रयास में बड़ी बाधा का काम करेगी।
गांधी उपवास को अनुष्ठान की तरह करते थे तो अन्ना ने अनशन को हथियार के रूप में काम में लिया। गांधी का मानना है किसी पर दबाव बनाने के लिए अनशन नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन अन्ना ने अपने अनशन दबाव के लिए किये। अन्ना ने गांधी को शायद ऊपरी तौर ही देखा-समझा है अन्यथा सन् 1922 के चौरीचौरा में हुई हिंसा के बाद अपने सहयोगियों की जबरदस्त खिलाफत के बावजूद असहयोग आन्दोलन को वापस लेना और सन् 1942 में पूरी कांग्रेस के विरोध के बावजूद ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का
‘हेला’ देना गांधी के पास अपने निर्णयों का दृढ़ आधार होना दर्शाता है। इन दोनों ही निर्णयों के सही होने की पुष्टि बाद की घटनाएं करती भी हैं।
भारत की आजादी के आन्दोलन में शामिल होने से पहले गांधी ने देश को पूरी तरह जाना-समझा था। अन्ना भी ऐसा करते तो वह आज इस मुकाम पर नहीं होते। भारत में चुनाव लड़ना और जीतना जितना मुश्किल अन्ना जानते-समझते हैं उससे कई गुना ज्यादा मुश्किल और बिना भ्रष्ट करतूतों के चुनाव लड़ना लगभग नामुमकिन है।
अन्ना वो सब आसान रास्ते से हासिल करना चाहते हैं जो अब कम से कम पीढ़ियों में ही हासिल हो सकता है, अन्ना सचमुच कुछ करना चाहते हैं तो पहले वह मतदाताओं को शिक्षित करने का काम करें, जिसमें प्रत्येक मतदाता को यह बताया जाय कि एक लोकतान्त्रिक देश का मतदाता होने की क्या-क्या जिम्मेदारियां हैं। अभी जो मतदान हो रहा है वह अधिकांशतः सम्प्रदाय के आधार पर, जातीय आधार पर, चामत्कारिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, गांव के मुखिया के कहने से, इलाके के दबंग के कहने से, पैसा या शराब लेकर,
जातीय भवन बनवाकर,
मन्दिर, मसजिद या अन्य किसी धार्मिक स्थान में पैसा लगवाकर आदि-आदि तरीकों और प्रलोभनों से ही हो रहा है। देश को अब जरूरत उसके मतदाता के जागरूक होने की है जो सम्पूर्ण इच्छाशक्ति से आहूत अभियान से ही सम्भव है न कि किसी आन्दोलन या अनशन से। राजनीति से तो हरगिज नहीं।’
--3
अगस्त, 2012
‘टीम अन्ना जिसे आम जनता मान बैठी है या जो वर्ग इनके साथ जुड़ा है वह अतिविशिष्ट न सही विशिष्ट वर्ग ही है, क्योंकि इस वर्ग को जीवन की न्यूनतम जरूरतें हासिल हैं। असल आम जनता देश की आधी से ज्यादा आबादी का वह हिस्सा है,
जिसे रोटी-कपड़ा-मकान के लिए रोजाना जद्दो-जेहद करनी पड़ती है, ऐसे लोग न अन्ना के साथ देखे गये न अरविन्द के साथ और न ही संन्यासी से व्यापारी और व्यापारी से राजनीतिज्ञ बनने को आतुर रामदेव के साथ देखे जाते हैं।’
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अक्टूबर, 2012
6 मई, 2013
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