Friday, May 24, 2013

पीबीएम अस्पताल पर ही आज फिर


बीकानेर संभाग के सबसे बड़े पीबीएम अस्पताल के रोजनामचे में कल एक घटना और दर्ज हो गई। प्रसूता वार्ड की सफाईकर्मी ने मृत शिशु को दफनाने के लिए प्रसूता के परिवार वालों से छः सौ रुपये की मांग कर दी। प्रसूता चूंकि ग्रामीण थी सम्भवतः इसीलिए उसके परिजनों को लगा होगा कि शव को गांव तो ले जाया जाना सम्भव नहीं है, यहां दफनाएं कहां, सो सफाईकर्मी की सेवा लेना मजबूरी हो गयी। अब जानना यह भी जरूरी है कि क्या सफाईकर्मियों की ड्यूटीज में शिशु शवों को दफनाना भी शामिल है या वे इसे अतिरिक्त सेवा के रूप में अंजाम देती हैं और यदि वह अतिरिक्त सेवा के रूप में अंजाम देती हैं तो क्या सेवा नियमों में इसकी छूट है? इस तरह के कई प्रश् खड़े होते हैं। प्रश् खड़े होते हैं तो कई बार हंगामा भी हो जाता है और हंगामा होता है तो कुछ समाजसेवी, अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारी और कुछ हल्लर-फलरिये भी इकट्ठा हो जाते हैं। मामला जैसे तैसे निबट जाता है। टीवी-अखबारों में सुर्खियां बन जाती है। लेकिन कल की इस घटना से एक सकारात्मक पहल भी हुई। किसी स्वयंसेवी संस्था ने इस तरह के शवों को दफनाने का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि संस्था इस तरह की सेवाओं का निभाव लम्बे समय तक करेगी।
उक्त हिमाकत जो सफाईकर्मी ने की, पीबीएम प्रशासन ने तुरत-फुरत उसे ड्यूटी से भी हटा दिया। दो-पांच दिन में दबाव बनेगा और कुछ हिदायतों के साथ उसे ड्यूटी पर ले लिया जायेगा। अकसर ऐसा ही होता है, हकीकत भी यही है। लेकिन क्या इस अस्पताल में प्रतिदिन होने वाले ऊपरी लेन-देनों पर भी कोई बवाल उठता है? अधिकांश डॉक्टर मोटी तनख्वाहें उठाने के बावजूद ना तो तयशुदा समय पर आउटडोर में बैठते हैं ना ही वार्ड में अपना तयशुदा राउण्ड लेते हैं। राउण्ड लेते भी हों तो किस मरीज की कितनी तवज्जो करनी, उनका अपना हिसाब-किताब तय होता है। ऑपरेशन किसका कब किस दबाव में करना है इसके लिए भी सबकुछ तय होता है। अधिकांश डॉक्टरों का यह हाल है तो अधीनस्थ भी बेलेण क्यों होंगे? गाडी तो चीले ही चलेगी। जूनियर डॉक्टर हों या टैक्नीशियन, क्लेरीकल स्टाफ हो या सफाईकर्मी, फिर इस तरह हथियाई जा सकने वाली सुविधाओं से कोई क्यों चूकेगा? इस तरह की ऊपरी सुविधाओं को मन धीरे-धीरे हक मानने लगता है। टकराव तब उत्पन्न होता है जब सामने वाला कोई इनके ढर्रे पर ना आकर अपने हक की बात करता है और इन्हें इनकी ड्यूटी की याद दिलाता है। वैसे इस माटी के लोग अब कम ही हैं! लेकिन बावजूद इसके कभी-कभी किन्हीं और कारणों सेबदमजगीहो ही जाती है, जैसे कल हुई।
कुछ लोग भले भी होते हैं जो अपनी ड्यूटी से मतलब रखते हैं। लेकिन उनमें से कइयों मेंऊपरी ढर्रेपर ना चलने की, माहौल में फिट ना होने की कुण्ठाएं ही जाती हैं। क्योंकिऊपरी ढर्रेपर भरोसा करने वाले इन्हें बेवकूफ जो घोषित कर देते हैं। इसके चलते भी कई बार बदमजगियां हो जाती हैं।
डॉक्टरों में अब नये तरह की कुण्ठाएं भी पनप सकती हैं। निशुल्क जांच और निशुल्क दवाओं की लोक-कल्याणकारी योजनाओं के चलते, इनमें से अधिकांश के कमीशन और दवाएं बनाने वाली फार्मास्यूटिकल कम्पनियों से मिलने वाली सुविधाओं में कटौती का भान जैसी ही इन्हें होने लगेगा, वे इन सुविधाओं की पूर्ति की जुगत अन्य तरीकों से निकालेंगे ही। लोक में कैबत हैज्यांका पड़्यां स्वभाव जासी जीवसूंलेकिन आमजन अपने हकों के लिए सचेत हों तो यह कहावतें झुठलाई भी जा सकती हैं।
24 मई, 2013

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