हमें वोट देना है, इसका पात्र चुनते
वक्त हम अपने मन के किन तुच्छ तर्कों और लापरवाहियों से गुजरते हैं, आज उसी पर बात कर लेते हैं। देश को आजाद हुए 71 वर्ष हो चुके हैं लेकिन यह स्वीकारने में कोई
संकोच नहीं कि वोट देने जैसी महत्त्वपूर्ण ड्यूटी या धर्म को लेकर हम परिपक्व नहीं
हुए हैं। आजादी बाद की पीढिय़ों में पहली-दूसरी के बाद अब तीसरी पीढ़ी भी वोट देने
चली है, लेकिन जिस तरह हमसे पूर्व
की पीढिय़ां वोट का पात्र चुनने में अगंभीर रही, उसे हम भुगत रहे हैं, हम गंभीर नहीं हुए तो उसी तरह हमारे बाद की पीढिय़ां भी
भुगतेंगी-आगाह यही करना है बस।
हमें वोट करना है ऐसे उम्मीदवार को जो बहुत खुली सोच के साथ समग्र समाज के हित
की बात सोचता हो, भ्रष्ट नहीं हो।
बल्कि, आजादी बाद से ही वोट का
पात्र चुनने की कसौटी यही होनी चाहिए थी कि वह दूरदृष्टा (विजनरी) होने के साथ-साथ
आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक मामलों में भी ईमानदार हो—क्या ऐसी ही कसौटियों पर परख कर हम वोट दे रहे हैं? आजादी बाद के शुरुआती समय में केवल पार्टी
देखकर ही हमने वोट किया है, पसन्द की पार्टी
ने उम्मीदवार सही नहीं दिया तो उसे खारिज क्यों नहीं किया। ऐसा कुछ करते तो आज
जैसी स्थितियां नहीं होती। किस-किस तरह के प्रत्याशी ना केवल आने लगे हैं बल्कि हम
बिना संकोच उन्हें जिताने भी लगे?
हम यह भूल जाते हैं कि जिन्हें हम लोकसभा और विधानसभाओं हेतु विजयी कर भेजते
हैं वे केवल हमारे समय को ही प्रभावित नहीं करते वरन् उनकी बनाई नीतियां हमारी
अगली पीढिय़ों को प्रभावित करेंगी। ऐसे में हमें ऐेसा जनप्रतिनिधि चाहिए जो बहुत
दूर तक की सोचता-विचारता हो, उसकी उपस्थिति
में बनी नीतियों से सामाजिक समरसता पर कभी आंच नहीं आएगी-बाद में भी कभी समूहविशेष
के प्रति अन्याय नहीं होगा।
एक हम हैं कि वोट यूं ही कर देते हैं। पिछली बार उसको दिया तो अबकी बार इसे दे
देते हैं, इस बार हमारे धर्म का या जाति का जो उम्मीदवार है उसे वोट
हम नहीं देंगे तो कौन देगा, अरे! फलाना मेरे
से वोट मांगने तो आया, मैं तो उसी को
दूंगा, उसने मुझे व्यक्तिगत लाभ
पहुंचाया या पहुंचा सकता है या कि यह पार्टी मेरे धर्म, जाति और समूह के हित की बात करती है तो वोट भी इसे ही।
फलाने उम्मीदवार ने मेरा कोई शौक पूरा कर दिया, कुछ प्रलोभन दे दिया या इस बार तो फलानी पार्टी का राज आ
रहा है, क्यों ना हम अपना वोट उसी
को दें? ऐसे तुच्छ लालचों में हम
ना केवल अपना वर्तमान ही नहीं बल्कि आगामी पीढिय़ों का भविष्य भी दावं पर लगा देते
हैं और हमें संकोच तक नहीं होता।
इसके मानी यह कतई नहीं है कि उक्त कसौटियों पर खरा उतरता कोई उम्मीदवार दिखे
नहीं तो वोट ही नहीं देना। हम उसे भी वोट दे सकते हैं जो इन कसौटियों के थोड़ा
बहुत नजदीक भी हो। हमारा यह भ्रम है कि जीतने वाले को वोट नहीं दिया तो वह खराब हो
गया, प्रत्येक वोट लोकतांत्रिक
यज्ञ में आहुति का काम करता है, लोकतंत्र के
प्रज्वलन को बनाए रखने में वह भूमिका निभाता है। इतिहास में नजर डालें तो 2500 वर्ष पूर्व यूनान में पहले लोकतांत्रिक शासन
की स्थापना का उल्लेख मिलता हैं। फिर लोकतंत्र एकबारगी गुम गया-लेकिन फिर लौट आया।
वर्तमान के इतिहास में 700 वर्ष पूर्व
इंग्लैण्ड में और 200 वर्ष पूर्व
अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना हुई। शुरू में स्त्रियों को, अश्वेतों को, पिछड़ों को वोट का अधिकार वहां भी नहीं था। धीरे-धीरे सब को
मिला। हालांकि इंग्लैण्ड का लोकतंत्र तो आज भी गणतांत्रिक नहीं है। समय अनुसार
बदलाव आते रहे हैं। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ही सर्वाधिक मानवीय मानी गयी है।
ताजा उदाहरण पड़ोसी देश भूटान का है, वहां के राजा ने स्वेच्छा से शासन जनता के सुपुर्द हाल ही में किया है। ऐसे
बदलाव लोकतंत्र को प्रतिष्ठ करते हैं।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी बहुत कमियां गिना सकते हैं। शासन की
आदर्शतम व्यवस्था उसे माना गया जिसमें किसी भी तरह के शासन की जरूरत ही ना हो,
जिस दिन हम इसके योग्य हो जाएंगे वह भी आ
जायेगी पर कितनी पीढिय़ों के बाद बताना मुश्किल है। हजारों वर्षों में ही सही आज तक
जहां हम पहुंचे हैं, वही उम्मीदें
जगाता है।
पिछले कुछ वर्षों
में मिला 'नोटा' nota का विकल्प आपकी उस
असमंजसता को दूर करता है कि जब कोई भी उम्मीदवार योग्य नहीं है तो मतदान केन्द्र
तक हम जाएं ही क्यों? इस धारणा से हम मतदान के
शत-प्रतिशत के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते हैं। उम्मीदवार पसन्द का न हो तो नोटा
का बटन दबाएंं। लोग कहते इससे फायदा क्या—किसी विकल्प का
उपयोग करेंगे तभी इसकी कमियां दूर करवा पाएंगे। पड़ोसी राज्य हरियाणा के चुनाव
आयोग ने हाल ही में स्थानीय निकायों के चुनाव में नोटा को प्रतिष्ठा देते हुए यह
प्रावधान किया है कि नोटा के वोट सभी उम्मीदवारों से ज्यादा हुए तो चुनाव रद्द
होगा और नये सिरे से होने वाले चुनावों में उन उम्मीदवारों को अयोग्य माना जायेगा।
ऐसा तभी संभव हुआ जब नोटा का उपयोग किया गया और तभी अयोग्यों की छंटनी का रास्ता
निकला! नोटा को हम खारिज ही कर देते तो
कहां से मिलता ये रास्ता। इसलिए लोकतंत्र में ऐसे बदलावों को सहज स्वीकारना चाहिए।
एक दिन ऐसा भी आयेगा कि उम्मीदवार बनते सोचेगा। लोकतांत्रिक
शासन में सुधार भी सतत प्रक्रिया के तहत होते हैं। धैर्य की जरूरत है, विवेक की जरूरत है और स्वार्थ छोड़ने की जरूरत है। इस बार
वोट अवश्य करें और अच्छे से करें और कोई भी उम्मीदवार नहीं जच रहा है तो नोटा का
बटन निस्संकोच दबाएं। अपना और अपनों का भविष्य अच्छा बनाने के लिए विवेक-सम्मत और
शत-प्रतिशत मतदान करें।
—दीपचन्द सांखला
06 दिसम्बर, 2018
No comments:
Post a Comment