पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित तीन राज्यों में
कांग्रेस काबिज हो गई है, वहीं उत्तर-पूर्व
के मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने कांग्रेस को सत्ता से हटा 10 वर्ष बाद पुन: वापसी कर ली। नवगठित राज्य
तेलंगाना में सत्ता फिर से तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के पास ही रह गई।
इन पांचों राज्यों तथा पिछले एक वर्ष में हुए विभिन्न चुनाव परिणामों का
निचोड़ समझें तो यही लगता है कि 2013-14 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की धमाकेदार वापसी के 5 वर्ष बाद उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम
तक मोदी के प्रति मोह भंग होता साफ दिखने लगा है। जो विश्लेषक ये मानते हैं कि
भाजपा प्रादेशिक एंटी इंकम्बेंसी के चलते हारी, वे कम से कम राजस्थान और मध्यप्रदेश को लेकर मुगालते में
हैं। हां, छत्तीसगढ़ में रमनसिंह की
भाजपा सरकार के प्रति एंटी इंकम्बेंसी ने मोदी-मोहभंग के साथ जबरदस्त असर दिखाया
और कांग्रेस को दो-तिहाई से ज्यादा बहुमत देकर जनता ने अपनी मंशा जाहिर जरूर की।
मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के बावजूद कांग्रेस का मत प्रतिशत भाजपा से कम रहना और
राजस्थान में भाजपा को 73 सीटें देकर
कांग्रेस को 99 पर रोक देना—इससे लगता है कि इन राज्यों में स्थानीय
सरकारों से नाराजगी कम रही और मोदी का वादों पर खरे नहीं उतरना लोगों को रास नहीं
आया। इसके मानी ये कतई नहीं है कि जनता कांग्रेस या राहुल गांधी को विकल्प के तौर
पर देखने लगी है, ऐसा इसलिए कहा जा
सकता है कि जिन दो राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के अलावा जनता के पास चुनने को
तीसरा विकल्प था, जनता ने उसे चुना,
मिजोरम और तेलंगाना के परिणाम इसके प्रमाण हैं।
राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में जनता को भरोसेमंद विकल्प नहीं सूझे तो जनता असमंजस
में रही कि किसे चुने! कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश के बनिस्पत राजस्थान में थोड़ी
अनुकूलता इसलिए हो गई कि भिन्न-भिन्न कारणों से सूबे के प्रभावी जातीय समूह
सत्ताधारी पार्टी से नाराज थे, राजस्थान में
इतनी ही एंटी इंकम्बेंसी मान सकते हैं। वहीं छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की जनता
कांग्रेस और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन तो किया लेकिन जनता ने उन्हें
विकल्प मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया। प्रि-पोल सर्वे किसी भी राज्य में सटीक
नहीं रहे लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने तो सर्वे को चौंकाने वाली पटखनी दी है। वहां
यही माना जा रहा था कि जोगी-मायावती गठबंधन के चलते चुनाव त्रिकोणात्मक हो गये।
लेकिन जनता ने वहां रमनसिंह से एंटी इंकम्बेंसी और मोदी मोहभंग के चलते तीसरे कोण
को पूरी तरह नकार भूपेश बघेल के नेतृत्व
में भरोसा जताया है। भूपेश की सतत मेहनत और आक्रामक रवैया जनता को भा गया।
इन परिणामों में मोदी मोहभंग के अलावा एक और खास बात जो उभर कर आई वह यह कि
हिन्दी पट्टी के राजस्थान, मध्यप्रदेश और
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हों या दक्षिण का तेलंगाना—हिन्दू बहकावे में नहीं आए। भाजपा के खुद द्वारा घोषित 'फायर-ब्रांड नेता' योगी आदित्यनाथ को जनता ने कोई भाव दिया ही नहीं। इसमें
अल्पसंख्यकों के संयमी योगदान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सांप्रदायिक
ध्रुवीकरण की सभी कोशिशों को नकार-भारतीय जनमानस ने अपने को बजाय हिन्दुत्वी जताने
के सनातनी हिन्दू होने का प्रमाण दिया।
राजस्थान के नतीजों पर संक्षिप्त बात करें तो इन परिणामों से कांग्रेस को मिला
जनादेश नहीं कह सकते। मोदी से मोहभंग और सूबे की प्रभावी जातियों की स्थानीय सरकार
से नाराजगी ही कांग्रेस के काम आई है। तीसरे मोर्चे की कोशिशें तो जरूर हुई लेकिन
भाजपा ने किरोड़ीलाल मीणा को राजी कर पार्टी में ले उसे नाकाम कर दिया। हालांकि
घनश्याम तिवाड़ी (भारत वाहिनी पार्टी), हनुमान बेनीवाल (राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी) और किरोड़ीलाल मीणा (राष्ट्रीय
जनता पार्टी) तीनों साथ मिल-बैठ पाते ऐसा इन अलग-अलग मिजाज और भिन्न मकसद वाले
व्यक्तित्वों से लग नहीं रहा था। ऐसों को जिस गति को हासिल होना था हो लिए। अभिनव
राजस्थान और आम आदमी पार्टी राजस्थान में अपनी अगंभीर कोशिशों के चलते कई उत्साही
नवयुवकों को निराश करने के अलावा कुछ खास नहीं कर पाई। जनता ने कांग्रेस को जिस
तरह भी सत्ता सौंपी, उससे और चुनावों
में किए भारी भरकम वादों से लगता यही है कि 2023 के चुनावों में 'उतर भीखा म्हारी बारी' का खेल ही फिर
चलेगा।
अब कुछ बात बीकानेर की भी कर लेते हैं। चुनाव पूर्व अनुमान में जिले की सात
में से छह सीटें कांग्रेस की मानी जा रही थीं लेकिन नेता प्रतिपक्ष रहे रामेश्वर
डूडी ने अपने स्वार्थों के चलते टिकट बंटवारे में जो राफड़-रोळी की और करवाई उसके
चलते माहौल में कांग्रेस के प्रति ना केवल उत्साह कम हुआ बल्कि खुद रामेश्वर डूडी हार
गये। जिले के कांग्रेस खाते में यह उल्लेखनीय हार है—इसके अलावा कांग्रेस के खाते में एक उल्लेखनीय जीत भी दर्ज
है—वह है कोलायत की। कोलायत
में लगभग अजेय किवदंती हो चुके देवीसिंह भाटी की मोदी मोह में भी पिछली हार जहां
अप्रत्याशित थी वहीं इस बार के चुनाव में सब कुछ दावं पर लगाकर भी उनकी पुत्रवधू
पिछले से दस गुणा अंतर से भंवरसिंह भाटी से हार गईं। इस तरह चालीस वर्षों की
क्षत्रपई का पटाक्षेप हो लिया। दो और उदाहरणों में श्रीडूंगरगढ़ से सीपीएम के
गिरधारी लाल महिया की जीत और खाजूवाला से गोविन्दराम मेघवाल की जिले में सर्वाधिक
वोटों से जीत उल्लेखनीय कही जा सकती है। इन दोनों की जीत यह साबित करती है कि अपने
क्षेत्र में सतत क्रियाशील रहने वालों की जनता उपेक्षा नहीं करती चाहे किसी की
पार्टी कोई भी हो या छवि पहले कैसी भी रही हो।
—दीपचन्द सांखला
20 दिसम्बर, 2018
No comments:
Post a Comment