Wednesday, December 25, 2013

बड़े दिन के बहाने

दुनिया की सभी सभ्यताएं और समाज समावेशी रहे हैं, इसे किन्हीं विशेष उदाहरणों से इंगित करना इसलिए संभव नहीं क्योंकि हमने कहां, किससे क्या ग्रहण किया और ठीक ऐसे ही हम से किसी अन्य ने कब-क्या ग्रहण किया इनको स्पष्ट करना टेढ़ी खीर है। कोई भी सबल-सजीव कभी चैन से नहीं बैठा। उसकी इसी फितरत की देन है आज की हमारी संस्कृति, समाज, खान-पान, पहनावा चाल-चलन और वास्तु आदि। मुगलों के आने से पहले उक्त सभी तरह की हमारी हरकतें भिन्न थीं और मुगलों की भी। बहुत कुछ हमने उनका अपनाया तो बहुत कुछ उन्होंने हमारा। ऐसा ही हमारा रिश्ता यूरोपियन्स या जिन्हें सम्मान्य तरीके से अंग्रेज कह देते हैं, साथ भी रहा। जो कुछ भी आज हम हैं उसका दस प्रतिशत भी मुगलों और अंग्रेजों के आने से पहले रहे होंगे, नहीं कह सकते। इसीलिए गुणीजन कहते हैं कि हमारी संस्कृति हमारा खान-पान रहन-सहन श्रेष्ठ और हम श्रेष्ठतम जैसे भाव छद्म दम्भ से ज्यादा कुछ नहीं है।
आज यह कहने-समझने की जरूरत सुबह से इसलिए महसूस हुई क्योंकि आज का दिन ईसाई समुदाय का सबसे बड़ा दिन है। आज ही के दिन प्रभु यीशु का जन्म हुआ था। वे लोग इस दिन को वैसे मनाते हैं जैसे हिन्दू दिवाली और मुसलमान ईद। इस दिन के ठीक छह दिन बाद नया ईस्वी सन् प्रारम्भ होता है। यह समयमान भी यूरोपियन्स का दिया हुआ है। हम इस पचड़े में नहीं पड़ेंगे कि कौन-सा समयमान ज्यादा निपुणता लिये या दोषहीन है। हम सबने इसे पूरी तरह अपना लिया और इससे हमारी समयमान सम्बन्धी सारी जरूरतें बखूबी सम्पन्न हो रही हैं तो इसे विस्थापित करने की जरूरत क्या है? दम्भ की तुष्टि के लिए ऐसे विस्थापनों में लग जाएंगे तो इसकी फेहरिस्त अन्तहीन हो जायेगी। प्रत्येक समर्थ अपने किए को श्रेष्ठ बताता है और यह इच्छा भी रखता रहा है कि अन्य भी उनका अनुसरण करें और उनका अनुसरण करनेवालों की संख्या लगातार बढ़ती रहे ताकि उनके सुख और समृद्धि में वृद्धि होती रहे। इसी मानसिकता के चलते उपनिवेश बनाने और उनका शोषण करने का सिलसिला शुरू हुआ। कुछ इतिहासकार मुगलों को अंग्रेजों से ज्यादा मानवीय इसलिए मानते रहे क्योंकि मुगलों ने आकर शासन िकया और यहीं रच-बस गये। जबकि अंग्रेजों ने शासन करने को सिपहसालार भेजे और अपने उपनिवेशों का हर तरह से भरपूर दोहन करवाया।
लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना होने लगी तो उसकी बहार सभी को सुकून देने लगी। हाल के युग में अंग्रेजों ने इसे अपनाया और ऐसे लोकतान्त्रिक सुख के आकर्षणों से अपने उपनिवेशों को मुक्त नहीं रख सके। इसी का नतीजा है कि इस समय दुनिया में गुलाम देश कोई नहीं है। कुछ देश अपने शासकों की तानाशाही के शिकार जरूर हैं लेकिन वे तानाशाह कहीं बाहर से नहीं आए, उन्हीं में से एक हैं। लोकतान्त्रिक मूल्यों को अपने जीवन में प्रतिष्ठा नहीं देंगे, उनकी निगरानी दूरदर्शिता और सावचेती से नहीं करेंगे तो कोई भी अच्छा-भला लोकतान्त्रिक देश तानाशाह के शिकंजे में सकता है। इसके लिए ना केवल स्वार्थों से उठना जरूरी है बल्कि व्यापक सोच भी जरूरी है। इन दोनों की कमी से समाज में भ्रष्ट आचरण का बोलबाला बढ़ता है, हमारे यहां बढ़ भी रहा है। क्या आज हम किसी ऐसे ही दौर से नहीं गुजर रहे हैं?

25 दिसम्बर, 2013

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