Saturday, December 14, 2013

समाज, राजनीति और जातीय जंतर--छह

जातीय दम्भ किस तरह तिरोहित होता है और कैसे फुफकारता है इसके दो अलग-अलग उदाहरण एक ही सन्दर्भ से साझा कर रहे हैं। अशोक गहलोत दिसम्बर, 1998 में जब पहली बार सूबे के मुख्यमंत्री बने तो मंत्रिमंडल की पहली सूची में डॉ. बीडी कल्ला भी थे। कल्ला इस हैसियत में थे कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। कल्ला सामाजिक तौर पर उच्च माने जाने वाले ब्राह्मण समुदाय से थे और गहलोत पिछड़े समुदाय के। उम्र की तुलना करें तो गहलोत कल्ला से उन्नीस माह छोटे हैं। बावजूद इन सबके मंत्री पद एवं गोपनीयता की शपथ लेते ही कल्ला ने गहलोत के पांव छुए। जातीय दम्भ का यह तिरोधान कब दम्भ में तबदील हो जाता है कहा नहीं जा सकता। स्थानीय निकाय में मनोनयन के समय मुख्यमंत्री ने कल्ला बन्धुओं की इच्छा के खिलाफ मार्च 2002 में वणिक समुदाय के सोमचन्द सिंघवी को बीकानेर नगर विकास न्यास के अध्यक्ष पद पर लगा दिया गया। यह मनोनयन किसी भी तरह से कल्ला बन्धुओं को हजम नहीं हो रहा था। तत्कालीन कलक्टर निर्मल वाधवानी का सड़क दुर्घटना में निधन हो गया था। सिविल लाइन्स स्थित उनके सरकारी आवास पर शोकसभा के बाद जनार्दन कल्ला दो माह के अपने अफरे को रोक नहीं पाए और कलक्टर आवास से निकलते ही सोमचन्द सिंघवी पर पिल पड़े और सोमचन्द के बहाने मुख्यमंत्री गहलोत को उनकी मूल पिछड़ी जाति के तिरस्कृत संबोधन से चुनौती देने से भी  नहीं चूके। उपस्थितों के सामने अचानक हुए इस हमले को सोमचन्द सिंघवी भी नहीं सम्हाल पाये और हक्के-बक्के हो गये। जातीय दम्भ इसी तरह फुफकारता है। पिछले एक सप्ताह से इस सामाजिक गन्दगी को कॉलम में इस तरह उघाड़े जाने पर कई पाठकों का एतराज स्वाभाविक है, पर गन्दगी को ढके रखना भी समाधान नहीं है। इसे चौड़े किया जाएगा, तभी इससे वितृष्णा होगी।
विनायक का यह भी मानना है कि 2011 की जनगणना के एक पक्ष जातीय आधार को सार्वजनिक किया जाना चाहिए ताकि बहुतों के भरम टूटने और आत्मसम्मान बनने लगे, अन्यथा समाज और राजनीति में केवल कयासों से ही बहुत कुछ तय होता रहा है। प्रतिष्ठित पार्टियों से उम्मीदवारी मांगने से लेकर चुनाव परिणामों के अनुमान जिस तरह जातीय आधार पर मांगे और लगाए जाते हैं, उन आंकड़ों की दावेदारियों की जोड़ के आधार पर क्षेत्रविशेष के मतदाताओं की संख्या असल संख्या से डेढ़ी-दुगुनी बैठती है। यानी विभिन्न जातियां दावेदारी और अनुमानों के समय एक क्षेत्र से जितने-जितने अपने समुदाय के वोट होने का दावा करती हैं, उन सबको जोड़ें तो असल संख्या से काफी ज्यादा हो जाती हैं। इसलिए जनगणना के जातीय आंकड़े सार्वजनिक हों तो समाज में कई तरह के भ्रम, दम्भ दावे और मानसिक पेचीदगियां कम और कमजोर होंगी। बहुत कुछ बदल रहा है। बदलाव में तिरोधान और फुफकार का प्रदर्शन एक साथ होना बदलावों को ही दर्शाता है।
(समाप्त)
14 दिसम्बर, 2013



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