लोकतांत्रिक विकास की राह में देश की जनता में बदलाव की कसमसाहट कई बार देखी गई और सही विकल्प न मिलने पर लौट कर वहीं आने की मजबूरी भी। 1967 के चुनावों में गैर कांग्रेसवाद
के नाम पर संविद सरकारें (संयुक्त विधायक दल) बनी, असफल हुईं तो 1971-72 के चुनावों में कांग्रेस भारी बहुमत से लौट आयी। इसी तरह 1977 का जनता पार्टी का प्रयोग विफल हुआ और 1980 के मध्यावधि चुनावों में कांग्रेस पुन: लौटी। लेकिन इस बीच क्षेत्रीय दलों ने अपनी उपस्थिति ठीक-ठाक बना ली। सो पिछले लम्बे अरसे से कई राज्यों में कुछ फेरबदल के साथ उन्हीं की सरकारें बनती हैं और केन्द्र में गठबंधन की।
इस सबके होते भी देश में भ्रष्टाचार व महंगाई लगातार बढ़ रही है, समर्थ और भी सबल तो आमजन असहाय। 2011 में अन्ना हजारे के रूप में उम्मीदें हरी हुईं और जल्द ही मुरझा भी गईं लेकिन उनका असर कायम है। उसी असर के परिणामस्वरूप
उनके पूर्व सहयोगी अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में विधानसभा की 70 में से 28 सीटों पर जीत हासिल की। अन्ना की सतत लड़ाई के फलस्वरूप आज लोकपाल विधेयक संसद में पारित हो गया है और हस्ताक्षर के लिए राष्ट्रपति को भेजा जाना है। अन्ना के साथ जब तक केजरीवाल रहे तब तक टीम अन्ना इस बात पर अकड़ी रही कि लोकपाल विधेयक के जिस मसौदे (जनलोकपाल) को उन्होंने तैयार किया है उसे ही अन्तिम माना जाय। इस तरह की जिद को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन अन्ना से केजरीवाल जैसे ही अलग हुए अन्ना ने लोकपाल विधेयक के मसौदे पर अपना रुख लचीला कर लिया। दूसरी ओर, पहले जनाक्रोश से सहम कर और दिल्ली विधानसभा चुनावों में उस आक्रोश की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के बाद सरकार और संसद ने भी लचीला रुख अपनाया है और लोकपाल विधेयक एक सिरे तक पहुंचता लग रहा है। हालांकि अरविन्द केजरीवाल समूह इसे अभी भी ‘जोकपाल’ कह कर खिल्ली उड़ा रहा है। ऐसा करते हुए ये भूल जाते हैं कि वे अपने ही लोगों द्वारा लोकतांत्रिक
तरीके से चुनी गई सरकार से लोहा ले रहे हैं न कि किसी उपनिवेशवादी
विदेशी शासकों से। आजादी के आन्दोलन के मोटा-मोट 90 वर्षों के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि स्वायत्तता और स्वतंत्रता आन्दोलन के अगुवाओं ने अपने एजेन्डों में काल-परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन किए थे। 1947 के बाद के तो सभी आन्दोलन अपने ही द्वारा चुने शासकों के खिलाफ हुए हैं। ऐसी स्थिति में अपने कहे को शत-प्रतिशत सही मानना और जनता के द्वारा चुने नुमाइन्दों को सिरे से खारिज करना उचित नहीं जान पड़ता। इसके समाधान के रूप में अन्ना आन्दोलन के दौरान ‘विनायक’ ने अपने एक से अधिक सम्पादकीयों
में आम मतदाता को एक लोकतान्त्रिक
देश के नागरिक के रूप में शिक्षित करने की आवश्यकता पर बल दिया है, जिसके बिना कोई स्थाई समाधान नहीं है। सिस्टम या व्यवस्था को ठीक करने के लिए लोकपाल जैसी व्यवस्थाएं आंशिक समाधान हैं, सामान्य मतदाता चौकस और शिक्षित होगा तो सिस्टम को ठीक होते देर नहीं लगेगी।
अब जब दिल्ली की जनता ने ‘आम आदमी पार्टी’ को सिस्टम सुधारने का जनादेश लगभग दे दिया है तो केजरीवाल की झिझक का कारण कहीं यही तो नहीं है कि जमे-जमाए सिस्टम से मतदाताओं की आकांक्षा पर खरे कैसे उतरेंगे और खरे नहीं उतरे तो 1967 और 1977 के बाद हुई पुनरावृत्तियां होते देर नहीं लगेगी? केजरीवाल चूंकि इसी सिस्टम का हिस्सा रह चुके हैं इसलिए उनकी झिझक भी अनुभूत है। जनता ने तो बता दिया कि वह कांग्रेस और भाजपा को उन्नीस-इक्कीस ही मानती है। भरोसे लायक तीसरा विकल्प मिले तो उसे अवसर देने को मतदाता तैयार है।
18
दिसम्बर, 2013
1 comment:
Deep ji. Bahut baareekee se ki gai vivechana ke liye sadhuwad.
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