लोक में एक कैबत सामान्यत: प्रचलित है कि लोग ‘चढ़े को भी हंसते हैं और पैदल को भी’। एक गधे और बाप-बेटे से सम्बन्धित इस कथा से वाकफियत सभी को होगी। कुछ ऐसी सी मसखरी के पात्र फिलहाल आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को बनाया जा रहा है। 70 में से 32 सीट जीत चुकी भाजपा ने सरकार बनाने से इनकार कर दिया तो 28 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी आम आदमी पार्टी को न्योता गया काफी-कुछ ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया’ अपनाकर ‘आप’ तैयार हो गई तो वही भाजपा जो अब तक उसे सरकार बनाने को उकसा रही थी अब इस हां पर भुंडाने लगी। उधर जो कांग्रेस 15 सालों से दिल्ली में राज कर रही थी महज 8 सीटों पर सिमटने के बाद सिवाय ‘आप’ को समर्थन देने के अपने को किसी अन्य भूमिका में नहीं पा रही है। तीनों पार्टियां इस आशंका से आतंकित हैं कि दुबारा चुनाव हुए तो जितनी सीटें हैं उतनी भी रह पायेगी? भाजपा की आशंका जायज भी है चूंकि, 2013 के त्रिकोणीय मुकाबलों के चलते 2008 के मुकाबले उसने 9 सीटें तो बढ़ा लेकिन 2008 के चुनावों में भाजपा को मिले 36.34 प्रतिशत मतों के मुकाबले 3.34 प्रतिशत घट कर 2013 के इन चुनावों में 33 प्रतिशत रह गया।
सब आंकड़े एक बात और जाहिर करते हैं कि हाल के विधानसभा चुनावों में आम मतदाता का रोष केन्द्र की मनमोहन सरकार के खिलाफ था तो जनता भाजपा से भी कोई बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं पाल रही हैं। जहां उसे तीसरे विकल्प में उम्मीदें दिखीं वे उसके मुखातिब हुए हैं, दिल्ली इसका उदाहरण है। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विकल्पहीनता
की स्थिति में मतदाता मजबूरी में भाजपा के साथ गया। मिजोरम के मिजाज को हम देश का मिजाज मानने से नकारते रहे हैं, सो वहां हुई कांग्रेस की अच्छी-खासी जीत को उल्लेखित में शुमार नहीं करते। इन चुनावों में नये मिले ‘नोटा’ (कोई उम्मीदवार पात्र नहीं) विकल्प के प्रति मतदाता ने उत्साह दिखाया है सो उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘नोटा’ की प्रतिष्ठा आगामी चुनावों में और बढ़ेगी ही।
दिल्ली लौट चलते हैं, ‘आप’ पार्टी के नेता ‘अरविन्द केजरीवाल’ ने कल दिल्ली के उपराज्यपाल से मिल कर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया है, ऐसा घटित होते ही जहां भाजपा अरविन्द के ‘गधे पर चढ़ने की मंशा जताने’ भर से ठिठोली करने लगे हैं तो कांग्रेस ने यह घोषणा करके कि उनका ‘आप’ को यह समर्थन बिना शर्त नहीं है, ऐसा कहकर उसने ‘आप’ के इस पहले ग्रास में मक्खी की अपनी भूमिका जाहिर कर दी है।
केजरीवाल ने दिल्ली के मतदाताओं को सब्ज-बाग बहुत दिखाए हैं सो जो उम्मीदें जनता ने उनसे कर रखी हैं वह कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा और अनमने कांग्रेसी समर्थक तेल और तेल धार देखने की मंशा से चुनौती के रूप में कहने लगे हैं कि जो-जो वादे किए हैं निभा कर दिखाएं। जनलोकपाल लागू करना, बिजली की दरें आधी करना, प्रति परिवार प्रतिदिन 700 लिटर पानी मुफ्त देने जैसे ‘आप’ के किए वादे यूं तो बहुत भारी लग सकते हैं लेकिन कांग्रेस और भाजपा अपने शासित राज्यों या चुनावी मौसम में जिस तरह की योजनाओं पर अनाप-शनाप धन खर्च करती रही हैं उसी तर्ज पर विचारें तो लगता है ‘आप’ ने ऐसे क्या वादे कर लिए जिन्हें पूरा करना संभव नहीं है? पर भाजपा और कांग्रेस की लोक कल्याणकारी योजनाओं के अनाप-शनाप खर्चे की लूट में इन्हें क्रियान्वित करनेवालों को बन्दरबांट का जो ठीक-ठाक हिस्सा हासिल होता रहा है, ‘आप’ के उक्त तीनों मुख्य वादों में संभव नहीं दिखता। जन लोकपाल लागू करते ही छोटे से छोटे सार्वजनिक सेवक से लेकर मुख्यमंत्री
तक इसकी जद में आ जाएंगे और ‘आप’ इसे ही ठीक-ठाक ढंग से प्रभावी कर ले तो पानी-बिजली तो क्या आम नागरिक की अन्य कई परेशानियां काफूर होते देर नहीं लगेगी। लेकिन क्या आम आदमी पार्टी से उम्मीदें बनाए वे सभी मतदाता जिनमें, व्यापारी और सरकारी कारकुन भी शामिल हैं ये सभी भ्रष्ट आचरणों से जुड़े अपने छोटे-छोटे हित फूंकने को तैयार हो जायेंगे? यही सबसे मुश्किल है, ऐसी ही मानसिकता के चलते भ्रष्टाचार हर उस में रच-बस गया है जो इस भ्रष्टाचार को सम्भव करने की छोटी हैसियत भी हासिल कर चुका है।
24
दिसम्बर, 2013
No comments:
Post a Comment