Thursday, October 3, 2013

दागी राजनेता, राइट टू रिजेक्ट, न्यायपालिका, संसद और सरकार

दागी राजनेताओं को बचाने की कवायद का एक बारगी पटाक्षेप हो गया। राहुल गांधी ने 27 सितम्बर को जो मंचन किया था उसी स्क्रिप्ट का अगला अंक कल अभिनीत किया गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दागियों को देश का कर्णधार बनने से रोकने के फैसले को यह मान मिलेगा, किसी ने नहीं सोचा था। इस घटनाक्रम में प्रधानमंत्री का मान कम हुआ या नहीं, सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों के लिए यह मायने नहीं रखता, वह भी तब जब आप एवजी पद पर विराजित होते हैं। प्रतिभाशाली मनमोहनसिंह यह जानते हैं कि उन्हें यह पद किस वजह से हासिल है। मनमोहन की सरकार द्वारा संसद में विधेयक रखा हो या अध्यादेश लाया गया, यह उनके अकेले का किया धरा पहले भी नहीं था और इन्हें वापस लेने का निर्णय भी अकेले का नहीं है। संप्रग चेयरपर्सन, गठबंधन सहयोगी, बाहर से समर्थन देने वाले दलों और मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों की मंशा रही होगी तभी यह विधेयक लाया गया, पार नहीं पड़ी तो अध्यादेश धकेल दिया। वाम-पंथियों को छोड़ दें तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भाजपा सहित लगभग सभी दलों ने ना केवल नाखुशी जाहिर की  थी, बल्कि सीधे विधायिका और कार्यपालिका में हस्तक्षेप बता दिया। हो सकता है उनकी इस प्रतिक्रिया का नकारात्मक सन्देश जनता के बीच गया जिससे ये सभी सहम गये और सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ही अपने स्टैण्ड से बैकफुट हुई। बाद में राहुल मंचन की स्क्रिप्ट लिखी गई। बदमजगी इतनी ही रही कि इस स्क्रिप्ट पर मनमोहनसिंह से चर्चा नहीं की गई और उसे मंचित कर दिया गया। चर्चा की जाती तो यह मंचन 27 सितम्बर को ना होकर 2 अक्टूबर को होता, ऐसा होता तो मोहनदास कर्मचन्द गांधी के नाम का उपयोग भी कर लिया जाता। भाजपा प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी इस पूरे घटनाक्रम कोहड़बड़ी में गड़बड़ीबताते हैं, जो लगभग सटीक है।
सुप्रीम कोर्ट के हाल ही में आए दो महत्त्वपूर्ण फैसलों की छाया में पांच प्रदेशों के अगले विधानसभा और आगामी लोकसभा चुनावों की रंगत कुछ अलग होगी। दागी उम्मीदवार खुद सीधे मैदान में नहीं होंगे, पत्नी, बेटे, बेटी, बहू या भतीजे को मैदान में उतार कर अपनी राजनीतिक सक्रियता जारी रखेंगे। लालू के जेल जाने पर राबड़ीदेवी ने कह ही दिया कि मां-बेटे मिलकर पार्टी चला लेंगे, जैसे पार्टी ना हुई घर का कोई धंधा-पानी है। राबड़ी ने तो सोनिया-राहुल की नजीर भी दी।
सुप्रीम कोर्ट का दूसरा महत्त्वपूर्ण फैसला जो पिछले दिनों आया और राहुल मंचन के चलते उस पर खास चर्चा नहीं हो पायी। निर्वाचन प्रणाली मेंराइट टू रिजेक्टका विकल्प देने के इस फैसले पर मीडिया को ना केवल विस्तार से चर्चा करनी थी बल्कि इसका पुरजोर प्रचार भी जरूरी है। कुछ मीडिया हाऊस चुनाव के दिनों में अभियान चला कर मतदाताओं को मतदान के लिए प्रेरित करते हैं। उस अभियान को अब नोटा (नन ऑफ अबव/उपरोक्त में से कोई नहीं) बटन की जानकारी के साथ चलाना चाहिए। पहले की तरह उनके अभियान फिस्स नहीं होंगे और सलीके से लोगों को बताया- समझाया जाय तो मतदान प्रतिशत चामत्कारिक ढंग से बढ़ सकता है। फिलहाल इस व्यवस्था की आलोचना यह कह कर की जा रही है कि इससे होगा क्या, जितेगा तो वह जिसे शेष में सर्वाधिक वोट मिलेंगे। तब इसका यही जवाब हो सकता है कि कोई भी मुकाम बिना कदमताल के हासिल नहीं होता। इस विकल्प का स्वागत करें अपनाएं, फिर लग जाएं और इस हेतु प्रयास करें किनोटाबटन के वोट यदि सर्वाधिक हों तो उस क्षेत्र में चुनाव दुबारा हों और जिन्हें नापसंद कर दिया गया है उन्हें कम से कम छह साल के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाय। तब तक जरूरी लगे तोनोटाबटन का जमकर प्रयोग करें और परिणाम देखें कि उम्मीदवारों पर क्या असर होता है।
रही बात न्यायपालिका के कार्य क्षेत्र के उल्लंघन की तो डबल बैंच में जाने का विकल्प है। संविधान ने भी न्याय पालिका की सीमायें तय कर ही रखी है उससे बाहर वह भी हाथ-पांव नहीं पसार सकती। संसद और सरकार अपनी सीमाओं का ध्यान नहीं रखेंगी और कर्तव्यों से च्युत होगी तो ऐसी नौबत आएगी ही।

3 अक्टूबर, 2013

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