Monday, October 14, 2013

हादसे और हमारी नीयत

मध्यप्रदेश दतिया के रतनगढ़ देवी मन्दिर हादसे की खबर जब कल दोपहर बाद नेटवर्क पर पहली बार फ्लैश हुई तो मन पड़ौस के चूरू जिले के रतनगढ़ तहसील में ऐसे किसी श्रद्धा-सैलाबी मन्दिर को टटोलने लगा। थोड़ी देर में जिला और प्रदेश स्पष्ट हुआ। चार वर्ष पहले जोधपुर के मेहरानगढ़ देवी मन्दिर में भी भगदड़ में कई जाने गईं थीं।
देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में साल में एक-दो ऐसे हादसे होते ही रहते हैं। इनके होने के बाद कुछ दिनों तक मीडिया वाले मसाणिया बैराग को चेतन किए रखते हैं और समय के साथ ये मुद्दे गौण होते चले जाते हैं, मानो सांसें थाम कर अगले हादसे का इन्तजार कर रहे हों। हर बार दस-बीस से लेकर सौ-दो सौ या इससे अधिक जाने चली जाती हैं। राजनेता हादसा स्थल का दौरा कर आते हैं, लखी मुआवजों की घोषणा होती है, जांच कमेटी बैठती है, दिन, महीने, साल गुजरते हैं, रस्म अदायगी भर को जांच रिपोर्ट पेश होती है, आश्चर्य यह कि अधिकांश रिपोर्टों में दोषी या जिम्मेदार किसी भी व्यक्ति विशेष को नहीं ठहराया जाता। जबकि सभी जानते हैं कि इस तरह की दुर्घटनाएं प्राकृतिक आपदाओं में नहीं आती। मानवीय लापरवाही और इन्तजामियां कमियों के चलते ही ऐसा होता आया है।
ऐसी घटनाओं के बाद सोशल मीडिया में यह बात अब पुरजोर उठती रही है कि ऐसे धर्म-स्थलों पर, जहां लाखों श्रद्धालुओं का आना-जाना होता है, वहां चढ़ावा भी करोड़ों में आता है। उसका हिसाब-किताब और उपयोग क्या है, कोई पूछने वाला नहीं। स्थानीय प्रशासन ने जरूरी सावचेतियां नहीं बरती तो किसी अधिकारी विशेष को कठघरे में खड़ा क्यों नहीं किया जाता?
ऐसी सभी बातों पर जनाक्रोश पनपता है और लम्बे समय तक जिंदा शायद इसलिए नहीं रह पाता कि जिनमें इसका सामर्थ्य है वे सभी अपनी जिम्मेदारियों के प्रति कहीं कहीं लापरवाह होते हैं, शेष अधिकांश तो अपनी रोटी-रोजी की जुगत में ही लगे रहते हैं और ऐसी बड़ी भगदड़ों के अधिकांश मृतक भी ऐसे ही लोग होते हैं। ऐसों की जान की कीमत आंकी ही उनके मरने के बाद जाती है, प्रति मृतक लाख-दो लाख।
ऐसा नहीं है कि इस तरह के हादसों को सावचेती से रोका नहीं जा सकता है। बानगी के रूप में परसों आए फैलिन चक्रवात के आपदा-प्रबन्धन को देखा जा सकता है। चक्रवात तो ऐसी आपदा है जिसे रोका नहीं जा सकता पर समय रहते बरती गई सावधािनयों से हजारों-लाखों जानों को बचा ही लिया गया। इस चक्रवात की भीषणता तो इसी से आंकी जा सकती है कि कहा जा रहा है इससे चौबीस सौ करोड़ रुपये की फसलें नष्ट हो गईं। आपदा-प्रबन्धन पुख्ता नहीं होते तो जान-माल की कूत करना भी शायद संभव नहीं हो पाता।
फैलिन का उदाहरण यह बताने के लिए ही दिया कि प्रशासन और लोग मुस्तैद हों और मंशा ठीक हो तो हादसों में जनहानि को और मानव जनित हादसों को रोका या जान-माल का नुकसान न्यूनतम किया जा सकता है।

14 अक्टूबर, 2013

No comments: