Friday, October 11, 2013

हनुमान का बल और चुनाव प्रक्रिया

विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही आचार संहिता पर सावचेती दिखाई देने लगी है। चुनाव आयोग अपने स्तर पर जहां निर्देश जारी कर रहा है वहीं जिला स्तर के निर्वाचन अधिकारी भी सक्रियता दिखा रहे हैं। चुनाव आजादी बाद से होते रहे हैं और अकसर उसकी प्रक्रिया पर अंगुलियां भी उठी हैं लेकिन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन से पहले इस आयोग के काम को ड्यूटी पूरी करना ही माना जाता था। लोक में कैबतहनुमान को बल याद दिलानेकी मिलती है, वहां बल याद दिलाने वाले की भूमिका में जाम्बवंत होते हैं पर चुनाव आयुक्त के रूप में टीएन शेषन को हनुमान और जाम्बवंत दोनों की भूमिकाएं खुद ही निभानी पड़ी। दिसम्बर 1990 में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त बने शेषन ने अपने पद की अहमियत का अहसास कराना शुरू कर दिया और पूरे छह वर्षों तक उन्होंने इसे जारी रखते हुए ना केवल इस पद की बल्कि आयोग और चुनावी क्षेत्रों के स्थानीय निर्वाचन अधिकारियों को भी उनकी ताकत का अहसास दिया।
चुनाव घोषणा के बाद से ही आचार संहिता को लेकर जहां स्थानीय स्तर के अधिकारी आए दिन दिशा-निर्देश जारी कर रहे हैं वही बाकाडाक में से भी कई रोचक काना-फूसियां जारी हैं। सावचेत लोगों को विभिन्न आयोजनों और रोजमर्रा के नकदी लेन-देन सम्बन्धी सावधानियों को लेकर जानकारी लेते देखा-सुना जाने लगा है।
धार्मिक-सामाजिक-निजी आयोजनों में आयोजकों और उनमें व्यक्तिशः शामिल होने वाले राजनेताओं से सम्बन्धित नित-नई हिदायतें सामने आने लगी है।
योग शिक्षक रामदेव की जबान पर लगाई गई लगाम इन दिनों चर्चा में है। छत्तीसगढ़ के उनके आयोजनों के खर्चों को भाजपा के चुनावी खर्च से जोड़ने का ताजा उदाहरण स्वागत योग्य और तार्किक है। ऐसी छूट किसी भी जाने माने व्यक्ति या धर्मगुरु को नहीं मिलनी चाहिए, चाहे वह किसी भी पार्टी का समर्थक क्यों ना हो। ऐसे मामले मतदाता के मन को सीधे प्रभावित करने वाले होते हैं।
शेषन की दी गई लगाम यदि नहीं होती तो पिछले बीस वर्षों में यह चुनावी मंजर क्या से क्या हो जाता, कल्पना से ही परे है। इसके बावजूद चुनावी खर्च लगातार बढ़ा है, खर्च करने की नयी-नयी गलियां तलाश ली गई हैं और तलाशी जा रही हैं। फिर भी अंकुश ना होता तो और भी बुरा हाल होता। इस बिना पर नियम और कानून में ढील नहीं दी जा सकती और ना ही उसे बदला या हटाया जा सकता है कि वह प्रभावी नहीं है। टीएन शेषन ने अपनी कार्यशैली से यह बता दिया कि मौजूदा नियम-कायदों में ही बहुत कुछ किया जा सकता है। उन्होंने कोई अलग नियम-कायदे नहीं बनवाए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने ही मौलिक अधिकारों की व्याख्या करकेनोटा’ (इनमें से कोई नहीं) जैसा सभी उम्मीदवारों को नकारने का विकल्प मतदाताओं को उपलब्ध करवा दिया है। विभिन्न मीडिया हाउसों संस्थाओं को वोट डालने की जागरूकता पैदा करने के साथनोटाके बारे में भी मतदाताओं को बताना चाहिए। इससे ना केवल मतदान प्रतिशत बढ़ेगा बल्कि यह विकल्प उम्मीदवारों को तोलने में भी सहायक सिद्ध होगा।


11 अक्टूबर, 2013

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