दो-तीन दिन से बड़ा असमंजस है, साफ-सुथरी राजनीति का हिमायती होते हुए भी गर्त में जाती इस राजनीति के भीतर ही प्रश्न खड़े करने की मंशा ‘विनायक’ की हो रही है। कांग्रेसी जिस तरह के हाव-भाव दिखाने लगे हैं उसे क्या कहें, राहुल का भय या हासिल में अंदेशे। सीपी जोशी ने अशोक गहलोत से भिड़ने की मुद्रा को जब्त कर लिया है तो गहलोत घोषणा करने लगे हैं कि मुख्यमंत्री कौन होगा, इसे चुनावी नतीजों के बाद ही तय किया जायेगा। उम्मीदवारी के सम्भावित नामों की पांच-पांच तरह से समीक्षा ने सामान्य कार्यकर्ता तो क्या कबीना मंत्रियों तक की सांसों को बाधित कर रखा है। रही सही कसर ये मीडिया वाले पूरी कर रहे हैं। इस तरह की खबरें छाप-छाप कर या सुना-सुना कर कि इतने विधायकों की, इतने राज्य मंत्रियों या इतने काबिना मंत्रियों के दावों पर प्रश्न-चिह्न लग रहे हैं। दागियों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आए अध्यादेश और विधेयक को वापस लेने की कवायद ने भी कइयों की उम्मीदें सांसत में डाल दी हैं। जो नेता लंपटाई का शौक फरमाते रहे हैं, बाबूलाल नागर के मामले के बाद वे सब इस भय से अलग ग्रसित हैं कि कौन कब क्या कह बैठे या कोई वीडियो क्लिपिंग उजागर ना कर दे?
राहुल अपनी नादानी में ये भूल रहे हैं कि गेहूँ में कंकर ढूंढ़ना तो आसान है पर कंकरों में गेहूँ ढूंढ़ना मुश्किल होता है। पांच-पांच चलनी लगाने के बाद बचेगा क्या? कहीं यही ना हो कि इस कवायद में राजस्थान के दो सौ उम्मीदवारों में पचास ही ना मिल पाएं। पार्टी चला रहे हैं तो सरकार बनाने की जुगत भी करनी होगी। ये लोग सीट भी निकाल पाएंगे कि नहीं। इस सबके चलते अन्ततः नाम वापसी के दिन राहुल ठिठक जाएं और यह करना पड़े कि जैसा भी हो जिताऊ को सिम्बल पकड़ा दें।
चुनाव के समय यह कवायद यानि गलत समय पर सही निर्णय सही को गलत साबित कर देगा। इस तरह की हड़बड़ी बचकानी साबित हो सकती है। राहुल साफ-सुथरेपन की आकांक्षा सचमुच रखते हैं तो पहले संगठन और कार्यकर्ताओं की स्क्रीनिंग करवाएं और शेष जो भी भले बचते हैं उन्हें सत्तासीनों से ज्यादा प्रतिष्ठा दिलवाएं। अधिकांश संगठनों पर काबिज लोगों के धंधे क्या हैं और वे किस तरह से इन्हें अंजाम देते हैं, सत्तासीनों के साथ इनके धंधों की किस तरह की और कितनी भागीदारी है, इतना पता कर लेने भर से राहुल चक्करघिन्नी हो जायेंगे।
प्रेस कान्फ्रेंस में या आम सभाओं में कागज फाड़ कर फेंकना या फाड़ कर फेंकने की बात करना ड्रामे से ज्यादा का सन्देश नहीं देता है। हो सकता है राहुल की मंशा अच्छी हो। मंशा अच्छी हो उससे हासिल तभी कुछ किया जा सकता है जब उसकी क्रियान्विति भी सही हो अन्यथा सरकार बदली तो अधिकांश कहार कांग्रेस के डोले रख कर भाजपा के उठा लेंगे। ‘उतर भीखा म्हारी बारी’ जैसा ही पिछले अर्से से हो ही रहा है।
16 अक्टूबर, 2013
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