Friday, October 18, 2013

फिर लौटा पप्पू और नोटा का महत्त्व

व्यावहारिक भारतीय राजनीति के इस काल को फेंकू-पप्पू काल के रूप में स्थापित करने के जतन में खुद राहुल और नरेन्द्र मोदी लगे हैं।विनायकने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के हवाले से कुछ दिन पहले इसका खुलासा किया था। मोदी या तो बिना जाने-समझे या रणनीति के तहत जानबूझ कर संवेदनशील और महती मुद्दों पर बयान फेंकते देर नहीं लगाते। वहीं राहुल अपनी पप्पू छवि से बजाय निकलने के लगातार उसे पुख्ता करने में ही जुटे हुए हैं। पिछले दिनों दागी नेताओं को बचाने के अध्यादेश से सम्बन्धित अपनी पप्पूयाना प्रतिक्रिया की सफाई मेंमम्मीकी समझाइश का उल्लेख किया तो कल मध्यप्रदेश की चुनावी सभा में खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित करवाने मेंमांकी मार्मिक भूमिका का बखान कर दिया।
दोनों ही पार्टियों के इन घोषित-अघोषितपीएम इन वेटिंगोंके हवाले से देश के लोकतंत्र को लेकर चिन्ता होने लगी है। रही तीसरे मोर्चे की बात तो पहले आशंका यही है कि भानुमति का यह कुनबा मिल बैठेगा भी या नहीं। स्वार्थों के चलते बैठ भी गया तो तीसरे मोर्चे के सम्भावित घटकों और उनके सुप्रीमों के रंग-ढंग देख-समझ कर कंपकंपी भी कंपाने लगती है मुलायमसिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता, करुणानिधि, शरद पवार, आदि-आदि। इनमें भी मुलायम-मायावती में और जयललिता-करुणानिधि में छत्तीस का आंकड़ा है, ये एक जाजम पर शायद बैठें। इन्हें घटा कर कोई आंकड़ा बैठे तो वामपंथी कहार की भूमिका निभाने जाएंगे। इनमें नीतीशकुमार और नवीन पटनायक के नाम जानबूझ कर नहीं लिए हैं। ये दोनों ही अपनी अदाएं शालीन बनाएं रखते रहे हैं। आगामी लोकसभा चुनाव में यदि इन दोनों की सीटें प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जितनी नहीं आयी तो हो सकता है नीतिश और नवीन के दोनों दल संभावित तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री के डोले के लिए कहार भर की भूमिका योग्य ही रह जाएं।
ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में जागरूक और असंबद्ध मतदाताओं के सामने असमंजस स्वाभाविक है। चूंकि फिलहाल ऐसे मतदाता हैं भी कम। इसीलिए इनकी अभिव्यक्ति अभी तक मुखर नहीं हो पायी है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट नेनोटा’ (खड़े उम्मीदवारों में से किसी को वोट नहीं देना) की व्यवस्था देकर ऐसे ही जागरूक और असंबद्ध लोगों को एक युक्ति दी है। इस तरह के लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे वोटिंग मशीन में सबसे नीचे के इस नोटा बटन से लोगों को अवगत करवाएं और इसका महत्त्व भी बताएं। हो सकता है कि तत्काल होने वाले इन चुनावों में इस नोटा की प्रासंगिकता लोगों को ना समझ आए। ऐसे नोटा वोटों की संख्या में लगातार वृद्धि हो तो हो सकता है ऐसे चुनावी प्रावधानों की जरूरत समझी जाने लगे कि डाले गये कुल मतों में से आधे से अधिक वोटनोटाके हों तो उस क्षेत्र में चुनाव रद्द कर दुबारा करवाना चाहिए। और दुबारा होने वाले चुनाव में उन  सभी उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित कर दिया जाय। लेकिन ऐसा तभी होगा जब मतदाता इसनोटाबटन के प्रति सचेत होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए किनोटामत देने की इस सुविधा के बाद मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा। क्योंकि ऐसे लोग जो वर्तमान पार्टियों, नेताओं और उम्मीदवारों से ऊब चुके हैं उन्हें मतदान केन्द्र तक लाने का प्रेरक विकल्प जो मिल गया है।

18 अक्टूबर, 2013

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