Tuesday, August 11, 2015

संथारा और इच्छा-मृत्यु

इच्छा-मृत्यु की जैन सम्प्रदाय सम्मत प्रक्रिया संथारा या संलेखना पर राजस्थान उच्च न्यायालय का उल्लेखनीय फैसला आया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस फैसले पर चर्चा मात्र साम्प्रदायिक आधार पर होकर मानवीय आधार पर होगी। इस पर होने वाली चर्चा ने यदि साम्प्रदायिक रंग ले लिया तो इसके उसी तरह के राजनीतिक हश्र को हासिल होने की पूरी आशंका है जिस तरह 1985 में शाहबानो बनाम मोहम्मद अहमद मामले में शाहबानो के गुजारा भत्ता मामले का हुआ था। तब ऐतिहासिक बहुमत से जीत कर आए और प्रगतिशील माने जाने वाले राजीव गांधी रूढ़ मुस्लिम विचारकों के दबाव में आकर संविधान संशोधन ले आए थे, वे वोट बैंक के दबाव में गए थे। राजीव गांधी जितने बहुमत से  तो नहीं लेकिन पूर्ण बहुमत की दंभी मोदी सरकार भी हो सकता है समृद्ध-समर्थों के इस सम्प्रदाय के दबाव में जाए। अब तो जैनी भी अल्पसंख्यक हो गये हैं तब यह बहाना भी कम नहीं है।
इस फैसले के बहाने इच्छा-मृत्यु जैसे मुद्दे पर संवेदनशीलता गंभीरता से विचार होना चाहिए। दरअसल जैन सम्प्रदाय की संथारा इच्छा-मृत्यु की ही प्रक्रिया है। चूंकि यह धर्मावृत है इसलिए कानून इसे अब तक नजरअंदाज किए था। जैन संन्यास परम्परा में लगातार विहार करने और बिना साधनों के पैदल ही विचरण करने का प्रावधान है और यह भी कि साधु-साध्वी को जीवित रहते गृहस्थों को नहीं सौंपा जा सकता। ऐसे में अस्वस्थ होने पर रुग्ण देह से मुक्ति के लिए ऐसा प्रावधान किया गया हो। क्योंकि पैदल विचरण की और विहार करते रहने की बाध्यता में अपने किसी रुग्ण और जीर्ण-शीर्ण संगी को संभालना बहुत मुश्किल कार्य होता है। संभवत: इसीलिए संथारे को कैवल्य या मोक्ष प्राप्ति से जोड़ दिया गया। किसी जैन संन्यासी या श्रावक ने पूर्ण स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट होते हुए भी संथारा लिया हो, ऐसे उदाहरण इतिहास में तो भले ही मिलें, इन ज्ञात वर्षों में ऐसा कोई उदाहरण ध्यान में नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि रुग्ण जीर्ण-काया वाला हर कोई या अधिकांश जैनी संथारा लेते हों। बल्कि जैन धर्मसंघों में सबसे प्रगतिशील माने जाने वाले तेरापंथ में ऐसे साधु-साध्वियों के लिए बाकायदा सेवा-केन्द्रों का प्रावधान है जहां अन्य साधु-साध्वी रुग्ण और जीर्ण-शीर्ण साधु-साध्वियों की सेवा शुश्रूषा करते हैं। संथारा यदि आम होता तो ऐसी व्यवस्थाओं की जरूरत नहीं होती। इसके अलावा भी तेरापंथ में हाथ से ठेलने वाले वाहन की सवारी और चप्पलनुमा कुछ पहनने की इजाजत संथारे जैसी नौबत को आने नहीं देती। बरास्ता तुरंत संन्यास और तत्पश्चात् संथारे जैसे प्रावधानों के बहाने जरूर कुछ गृहस्थ इस तरह इच्छा-मृत्यु अपनाने की छूट लेते रहे हैं।
ऐसे में क्यों इच्छा-मृत्यु पर इस तरह भी विचार होना चाहिए कि जिसके जीने की संभावना लगभग निश्चित अवधि तक ही हो और वह ऐसे रोग से पीडि़त हो जिसमें उसके कोमा में चले जाने या किसी रोग या दुर्घटना के चलते सतत गहरी वेदना में रहना होता है तो ऐसे कुछेक दुर्लभतम मामलों में इच्छा-मृत्यु की इजाजत वैधानिक होनी चाहिए। इसके लिए संवेदनशील चिकित्सकों, भले बौद्धिकों और मौजिजों की कमेटी का संवैधानिक प्रावधान किया जा सकता है जो इच्छा-मृत्यु की इजाजत दे। संथारे में भी संघ या गुरु की स्वीकृति का प्रावधान है ही। इसमें इच्छा-मृत्यु के कुछ तरीके भी तय किए जा सकते हैं जिनमें संथारे के एक तरीके को भी मान्यता दी जा सकती है। लेकिन साम्प्रदायिक आधार पर संथारे को ही वैधानिकता का जामा पहनाना उचित नहीं होगा। उम्मीद की जाती है कि उदार और प्रगतिशील जैनी और अन्य बौद्धिक इस फैसले के बहाने इस तरह भी विचारेंगे।
सक्षम न्यायालय को इस पर भी पुन: विचार करना चाहिए कि संन्यास जैसे लगभग जीवन पर्यन्त के  निर्णयों की छूट किसी नाबालिग-नाबालिगा और उनके अभिभावकों को नहीं दी जानी चाहिए। जब कानून 18-21 की वय से पहले विवाह तक की छूट नहीं देता और निश्चित उम्र से पहले किए अपराध की सजा वैसी नहीं होती जैसी बालिग-बालिगा के लिए होती है तब संन्यास जैसे बड़े निर्णय की छूट क्यों कर दी जाती है। यह बात समझ से परे है।

11 अगस्त, 2015

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