Monday, August 17, 2015

भोथरी होती संवेदनाएं

शनिवार की रात जब शासन-प्रशासन उनहत्तरवां स्वतंत्रता दिवस मनाने या मना कर सुस्ताने में लगा था उस समय बीकानेर के ही तिलक नगर क्षेत्र के मकान में एक दम्पती ने ठण्डे दिमाग से निर्णय कर पहले अपनी तीन बेटियों को शरबत में जहर पिलाया, यह लग जाने पर कि तीनों का काम तमाम हो गया, बाद इसके दोनों खुद ने पगजोड़ा किया और जहर गटक लिया। घर बन्द था, इस कारण पूरी रात किसी बचाव की गुंजाइश नहीं थी। सुबह जब तक पड़ताल होती, पांचों की मौत हो चुकी थी। ऐसी घटना पहली बार हुई हो, ऐसा नहीं है थोड़े-कुछ बदलाव के बाद देश में कहीं कहीं आए दिन होती है, अधिकांश को तो सुर्खियां ही नहीं मिलती। दूर प्रदेश तो क्या यहां से  शहरों  में होने वाली ऐसी घटनाएं अखबारों के स्थानीय संस्करणों में जगह कम ही पाती हैं। वैसे भी ऐसे भी आजकल कोई खबर पढ़ कर संवेदनाएं आहत कहां होती हैं, भोथरी हो चुकी संवेदनाएं खबर पढ़-सुन-देख कर ठिठकती भी बहुत-कमों की होंगी।
लम्बी गुलामी के बाद मिली आजादी से जितना हासिल किया है उसका जश्न तो बनता है पर बहुत  कुछ हासिल होना शेष रहा है उस पर विचार-मंत्रणा की जरूरत समझना जरूरी हैं, जो छिट-पुट के अलावा कहीं महसूस नहीं की जाती। थोड़े-बहुत कोई करते भी हैं तो अधिकांश लोग विचारना तो दूर, आंख-कान देना भी जरूरी नहीं समझते।
गांवों में बसने वाले भारत देश में विकास का जो शहरी मॉडल अपनाया गया, शुरुआत वहीं से गड़बड़ा गई। पश्चिम से प्रभावित देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू को लगता था कि देश समृद्ध इसी से हो सकता है, हालांकि जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें अहसास हो गया कि देश के विकास के लिए गांधी के सुझाए सहज विकास के आर्थिक मॉडल पर ध्यान देना भूल थी, जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया। लेकिन तब तक विकास की योजनाओं ने सत्तरह वर्ष का सफर भी तय कर लिया और कुछ बदलाव लाने के लिए नेहरू खुद भी रहे नहीं। गुलामी के दिनों में जिस पश्चिम की आर्थिक नीतियों से देश की व्यवस्था जर्जर हुई, आजादी बाद भी हमने उसी पश्चिमी आर्थिक विकास के मॉडल को अपना लिया। नतीजा जहां एक ओर शहर विकराल होते गए वहीं गांव कमजोर। जो समर्थ और समृद्ध था या जिसके पास ऐसा होने की अनुकूलताएं थीं, वह इस दौड़ में शामिल हो गया। जब दौड़ के ही हासिल करना है तो बहुत से लोग केवल पीछे रह जाने हैं, बल्कि गिर कर रौंदे भी जाएंगे।
तिलक नगर का यह परिवार इसी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में रुंद गया। पुत्र होने की सामाजिक-पारिवारिक धारणाओं के चलते तीन बेटियां, उनकी पढ़ाई का निजी स्कूली खर्च, बनाए गए मकान का कर्जा और आती दीख रही बेटियों की शादी का खर्चा उनकी आय के अनुकूल बैठता दिखा नहीं होगा, संभवत: इसी निराशा में जघन्य कदम उठाया गया।
इसीलिए विकास के इन मॉडलों को अमानवीय माना गया है। मुश्किल यही है कि देश ने विकास के जिस मॉडल को अपनाया उसकी दिशा भी पश्चिम ही तय कर रहा है और सभ्यता वैश्विक बाजार के चंगुल में लगातार फंसती जा रही है।
इसके चलते ऐसी घटनाओं में लगातार इजाफा होना है और संवेदनाएं भोथरी होते-होते रहेंगी कि नहीं, कह नहीं, सकते। बचना है तो जहां तक पहुंचे हैं, वहीं से मानवीय रास्ते पर विचारना होगा। लेकिन समर्थ हड़बड़ी में हैं, उनके पास अवकाश नहीं है और जो असमर्थ हैं उन्होंने अभावों को नियति मान ली है। इसी जड़ता को तोडऩा जरूरी है, नहीं तोड़ेंगे तो भुगतेंगे, भुगत ही रही है आम जनता।

17 अगस्त, 2015

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