Wednesday, August 12, 2015

बिना आत्ममुग्ध हुए भी प्रतिक्रिया देने का अभ्यास करें

गूगल के नए मुख्य कार्यकारी अधिकारी तमिलनाडु के सुंदर पिचई बने हैं। कल इसके बाद से आत्ममुग्ध भारतीय फूले नहीं समा रहे। दुनिया की अन्य कई बड़ी कम्पनियों के ऐसे ही अधिकारी पहले भी कई भारतीय बन चुके हैं। अलावा इसके कहीं भी कोई भारतीय मूल का व्यक्ति उच्च-पदस्थ होता है हमारे यहां नगाड़े पीटे जाने लगते हैं। इस तरह की किसी सूचना पर सामान्य मुग्धता स्वाभाविक है लेकिन अतिरिक्त उछल-कूद को बेगाने की शादी में अब्दुला का दीवाना होना ही माना जायेगा।
ऐसे उच्च-पदस्थों से भारत को कभी कोई लाभ हुआ हो, उदाहरण नहीं है। क्योंकि ये सभी ऐसे पदों तक पहुंचे ही इसलिए हैं कि उन्होंने अपनी निष्ठा काम के प्रति ही बनाई। इनके किसी भी कर्म में विचलन इस आधार पर नहीं आता कि किसी भाई-भतीजे को लाभ पहुंचाना है या अपने मूल देश के प्रति कुछ उदारता बरतनी है। ऐसा कुछ विचारना मात्र ही ड्यूटी से च्युत होना है। यदि ऐसी मानसिकता होती तो ये किसी महती जिम्मेदारी के काबिल नहीं माने जाते। ऐसों के इस तरह के व्यवहार को गलत भी नहीं कहा जा सकता।
आत्ममुग्ध होकर ढिंढ़ोरा पीटने की बजाय इनके काम करने के तौर-तरीकों को सीखना जरूरी है। इसके साथ यह सबक भी जरूरी है कि इस तरह के काबिल लोग अपने देश की सेवा करने में तत्पर क्यों नहीं होते। पड़ताल यह भी जरूरी है कि हमारे देश की जो शासन-प्रशासन की व्यवस्था है उसमें प्रतिभावानों को कुछ करने की गुंजाइश और अनुकूलता है कि नहीं, और नहीं है तो वैसी गुंजाइश और अनुकूलता बनाने के कोई प्रयास हो भी रहे हैं या नहीं। असहज करने वाली ऐसी खोजबीनों को पहले तो हम करना ही नहीं चाहते और करते भी हैं तो प्रयास प्रारंभ में ही ढेर हो जाते हैं। यह मानकर कि यह देश तो यूं ही चलेगा, जैसी-तैसी भी इस व्यवस्था का हिस्सा बनने में ही लाभ है। इस तरह हम अपने देश की व्यवस्था को बद से बदतर बनाने के भागी हो जाते हैं।
वहीं दूसरी तरफ जो भी भारतीय विदेश में जाकर बसता है, वह वहीं का होकर रह जाता है। अपवाद स्वरूप कोई नाम गिनाएं भी तो ऐसे उच्चस्तर के प्रतिभाशालियों के नाम अंगुलियों पर ही गिन लिए जाएंगे। जिन भारतीयों को विदेश में कोई खास दिक्कत नहीं आती है या जिन्होंने अपने रहन-सहन, तौर तरीके, संबंध और रीति-रिवाजों की अनुकूलता वहीं ढूंढ़ ली, उन्हें तो ये देश कभी याद ही नहीं आता। आएगा भी क्यों, भीतर झांक कर देखें कि हम में से कितने लोग तीसरी-चौथी पीढ़ी के रिश्तों को निभा पाते हैं। यदि ऐसा नहीं है तो रिश्तों की ऐसी भावुकता को हम कितना सहेज पाते हैं।
सोशल साइट्स पर अनेक प्रवासी भारतीयों को यहां की व्यवस्थाओं पर अकसर विलाप करते देखा है, दया करते हुए भी। दाता भाव से कुछ करने की मंशा भी जताते हैं। इस तरह की उनकी मंशा को भारतीयों के लिए सम्मानजनक माना जा सकता है। बेहतर यही है कि ऐसी मानसिकता वाले अपने दड़बे में ही रहेंदेश की परिस्थितियों, दुविधाओं और असमानताओं के कारणों को बिना समझे दूर देश से प्रतिक्रियाएं देना प्रतिकूलता को बढ़ाने का ही काम करती है।
सुन्दर पिचई की नियुक्ति की सूचना भारतीय मीडिया ने बढ़-चढ़ कर दी है। ऐसी किसी भी सूचना को पहले भी ऐसी ही सुर्खियां मिलती रही हैं। कभी ठिठक कर विचारें भी कि इससे देश को क्या हासिल होना है। थोड़ा-सा भी सामथ्र्य हासिल होते ही हम अधिकांश भ्रष्टाचार, हरामखोरी, बेईमानी अपनाने लगते हैं, इस लोभी धारणा से कि मुझे तो आगे बढऩा है और इसका अगला छुपा वाक्य होता हैदेश जाए भाड़ में।

12 अगस्त, 2015

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