Friday, August 21, 2015

छात्रसंघ चुनावों पर पिछले वर्ष की कही

छात्रसंघ चुनावों की रेलम-पेल शुरू हो गई है। 'विनायक' को लगता है कि इन चुनावों पर पिछले वर्ष लिखे संपादकियों से कुछ हिस्सों को ज्यों-का-त्यों साझा किया जा सकता है :—
न्यायालय ने ताकीद की तो ये फिर शुरू हुए हैं, नये नियम-कायदों के चलते शुरू के दो-तीन वर्षों तक तो पता ही नहीं चला कि कब चुनाव हो लिए। उसके बाद तो इन चुनावों में पहले वाले घोड़े और वही मैदान हो गए। हां, घोड़ों पर तामझाम कुछ वर्ष जरूर नहीं दिखाई दिया, जो अब फिर से दीखने लगा। बड़े संस्थानों के चुनावों में झंडे, डंडे, गाड़ी-घोड़े, पोस्टर, बिल्ले आदि चौड़े-धाड़े भले ही दिखाई नहीं देते हों, पर बिना बैनर वाली गाडिय़ों की गिनती नहीं की जा सकती। महाविद्यालय के आसपास ऊंचे किराये पर भवन लिया जाता है जहां चौबीसों घण्टे रसोवड़े और मयखाने चलते हैं। वोट और सपोर्ट के लिए मान-मनुहार के साथ डराना-धमकाना, मारा-कूटे तक के उपाय अपनाए जाते हैं। यहां तक कि कोई किसी मजबूरीवश वोट डालने नहीं पहुंच सका तो उसे भी विरोधी मान लिया जाता है। और तो और सत्र शुरू होते ही और संभावित चुनावी तारीखों से कुछ समय पूर्व इन छात्र संगठनों और समूहों को संस्थानों में कमियां दिखने लगती है जिसमें पानी-पेशाब की अव्यवस्थाओं से लेकर प्राध्यापकों की कमी और जर्जर भवन तक नजर आने लगते हैं। इन्हें दुरुस्त करवाने के लिए टायर पुतले जलाने से लेकर मुख्य दरवाजों पर ताला जडऩे तक की ध्यानाकर्षणीय करतूतों को अंजाम दिया जाता है। जेएम लिंगदोह रिपोर्ट की पीठ पीछे सभी कुछ के साथ चुनावों की रस्म अदायगी हो लेती है। परिणाम आने के बाद कुछ मारा-कूटा, बदला लेने और सबक सिखाने के बहाने हो लेता है। छात्रसंघ कार्यालय के नाम पर संस्थान भवन में किसी कमरे या हॉल पर ताला लगाने का हक हासिल कर लिया जाता है। कहते हैं जिसमें ऐसा सब होता है कि यदि उस छात्रसंघ कार्यालय में सीसी टीवी कैमरा लगा हो और सुचारु हो तो उसके फुटेज देखने के लिए अलग तरह की मन:स्थिति की जरूरत होती है।
छात्रसंघों के चुनाव शुरू तो इसलिए हुए थे कि हमारे विद्यार्थी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से वाकिफ और शिक्षित हों तथा देश और प्रदेश की राजनीति को सुलझे-समझे नेता-जनप्रतिनिधि हासिल हो सकें। देश और प्रदेशों में आज के प्रथम पंक्ति के नेताओं में कई छात्रसंघ की राजनीति से बन-ठनकर आए मिल जाएंगे। लेकिन लोक में कैबत है कि 'घाण ही बिगड़ा' हुआ हो तो उसका बना मिष्टान्न स्वादिष्ट कैसे होगा।
खैर, उम्मीद की जानी चाहिए कि इन चुनावों में लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का दिखावे जैसा ही सही थोड़ा-बहुत ध्यान रखा ही जायेगा। स्थानीय प्रशासन से अधिक संस्थान प्रशासन की सांसें इन चुनावों में ज्यादा अटकी इसलिए रहती हैं कि स्थानीय प्रशासन चुनावी प्रक्रिया के दौरान संस्थान प्रशासन की ढेबरी तो कस के रखता ही हैऔर कुछ हो जाए तो हड़काता भी है।
छात्रसंघ के चुनावों को शुरू करने का मकसद तो यही था कि इस महती लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भविष्य के इन कर्णधारों को अवगत करवाया जा सके। यह विचार जब बना तब आम चुनावों में वोट देने की न्यूनतम उम्र इक्कीस वर्ष थी। लेकिन अब तो इसे अठारह कर दिया गया है। कोई विद्यार्थी इन महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में दाखिला लेता है तो उसकी उम्र वैसे भी सत्तरह-अठारह वर्ष की हो चुकी होती है। ऐसे में उक्त विचार का महत्त्व कम हो लेता है। देश में राजनीतिक पेशे को जिस तरह से अंजाम तक अब पहुंचाया जाने लगा है और उसी का लघु-बीभत्स रूप यदि इन छात्रसंघ चुनावों में देखने को मिलने लगा है तो इस लोकतांत्रिक प्रशिक्षण को बन्द कर दिया जाना ही अच्छा है। बल्कि बजाय चुनावों के, इन संस्थानों के लिए नागरिकता की शिक्षा का पाठ्यक्रम तैयार करवाकर एक प्रश्नपत्र प्रत्येक स्नातक और डिप्लोमा शिक्षा में अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।
जो छात्र नेता जितने ज्यादा पैसे बहाकर और अधिक दबंगई से जीतता है उसका राजनीतिक पेशे में प्रवेश आसान हो जाता है, अन्यथा वहां स्थापित होने के लिए सबसे कठिन प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। इसे हम बीकानेर के सन्दर्भ में इस तरह भी समझ सकते हैं कि मान लें शहर की कुल आबादी सात लाख है। अब शहर के हिसाब से राजनीति के सफल धंधेबाजों की फेहरिस्त बनाएं तो मेयर सहित साठ वार्ड पार्षद, एक नगर विकास न्यास के अध्यक्ष, दो विधायक और आधा सांसदकुल जमा कितने हुए। इस हिसाब से सफलता कितनों को मिली, मात्र साढ़े तिरेसठ को, कुछ और राजनीतिक नियुक्तियों को शामिल कर कुल सत्तर मान लेते हैं। यानी प्रत्येक दस हजार पर इस राजनीतिक धन्धे में मात्र एक के सफल होने की गुंजाइश है। वह भी स्थाई नहींपांच वर्ष बाद बाहर कर दिए गये तो! बाहर कर दिए गयों के हालात देख-समझ लें।
यह सब बताने का मकसद इतना ही है कि जिस भाव और मंशा से इन छात्रसंघ चुनावों को शुरू किया गया वह सिरे से ही गायब है। वैसे भी, अधिकांश सरकारी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में पढऩे-पढ़ाने की नीयत कम ही देखी जाती है। ऐसे में इन छात्रसंघों के चुनावों को यदि बंद ही कर दिया जाय तो यह लाभ तो जरूर होगा कि जीवन की इस शुरुआती उम्र में उन सब हथकंडों में फंसने से विद्यार्थी बच सकते हैं, जो 'अलोकतांत्रिक और अमानवीय' हैं।

22 अगस्त, 2015

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