Thursday, October 9, 2014

उषी खान के बहाने सम्बन्धों की पड़ताल

यूं तो समर्थ समाज के सभी तरह के समूहों में रिश्ते-नातों का मोल बळ पड़ते और सामथ्र्यानुसार तय कर लेन-देन कर लिया जाता है। नजाकत और संवेदनाओं का प्रकटन भी क्षमतानुसार कर दिया जाता है। शेष जो असमर्थ हैं उनके पास भावनात्मक कुछ होने के मानी इसलिए नहीं रहते कि उनकी प्राथमिकता में अपने और परिजन के जीवन को जैसे-तैसे धकियाते चलते रहना ही है।
इस विचार ने आज तब अस्तित्व लिया जब प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बरकतुल्ला खान की पत्नी उषी खान के निधन के समाचार के साथ राजस्थान पत्रिका में उनसे सम्बन्धित टिप्पणी पढ़ी। राजस्थान पत्रिका ने यह टिप्पणी देकर पत्रकारिता धर्म के बचे-खुचे अस्तित्व की पुष्टि ही की है।
राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य में वैसे तो बरकतुल्ला खान का कोई विशेष अस्तित्व नहीं रहा लेकिन पिछली सदी के सातवें दशक के अन्त में जब इन्दिरा गांधी कांग्रेस सुप्रीमो बनने की कोशिश में थी तब उन्होंने यहां के सशक्त मुख्यमंत्री और पार्टी में विरोधी खेमे के मोहनलाल सुखाडिय़ा की जगह मुख्यमंत्री के रूप में बरकतुल्ला खान को थोप दिया। 1967 के बाद देश और प्रदेश की राजनीति में अस्थिरता और प्रदेश में कई जगह नए विश्वविद्यालय खोलने की मांग को लेकर चले छात्र आन्दोलनों के उस दौर ने बरकतुल्ला खान को अपना कार्यकाल चैन से नहीं भोगने दिया। कुल जमा सवा दो साल के कार्यकाल के दौरान ही हृदयगति रुक जाने से उनका निधन हो गया था।
अपने पति से पन्द्रह वर्ष छोटी उषी खान तब से लेकर कल तक अपना जीवन एकाकी गुजार रहीं थी। राजस्थान पत्रिका में पढ़कर पता चला कि जिस सरकारी घर में वह रह रहीं थी वहां पिछले बीस वर्षों से कोई परिजन और प्रियजन उनसे मिलने ही नहीं आया। उषी खान ने अन्तिम तीन दशक सरकार की ओर से उनके लिए नियुक्त पुलिस के दो सिपाहियों के आसरे से ही गुजारे।
इस सब का जिक्र यह समझने के लिए जरूरी लगा कि जिस राजनीति में किसी से थोड़ी बहुत गुंजाइश दीखते ही उसके आगे जिन्हें लमलेट होते देखा जाता है और यूं लगने लगता है कि लमलेट होने वाले के जीवन में उस समर्थ व्यक्ति के अलावा किसी अन्य का कोई महत्त्व ही नहीं है। उसके लिए वह सब करने को वैसा ही तत्पर दिखाई देता है जैसा खुद को जनने वालों और खुद के जायों के लिए कभी नहीं रहता होगा। खान के सवा दो वर्ष के मुख्यमंत्रित्व काल के समय पनपे ऐसे  कितने ही लोग आज भी सक्रिय होंगे जिन्होंने तब क्या-क्या और कैसे-कैसे समर्पण भाव दिखाए होंगे लेकिन उनमें से कोई एक भी उषी खान को सम्हालने नहीं गया। किसी के पास से कुछ मिलने की उम्मीदें खत्म हो जाएं और कोई गहरी आत्मीयता महसूस करने वाला निकट परिजन हो तो जीवन स्तब्धि को हासिल हो जाता है।
शेष सब की बात छोड़ भी दें तो ठीक-ठाक कार्यकाल वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों में जगन्नाथ पहाडिय़ा और अशोक गहलोत आज भी सक्रिय हैं, और पहाडिय़ा पर हाइकमान का कृपाभाव नहीं होता तो वे मुख्यमंत्री बन पाते और ही राज्यपाल। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की पारी जरूरी कूव्वत होते हुए भी ठीक-ठाक खेल ली। वे अपना खुद का कोई व्यक्तित्व नहीं बना पाए तो एक कारण उनका दलित वर्ग से आना भी रहा। अशोक गहलोत का व्यक्तित्व केवल आकाओं की कृपा से बना हुआ नहीं है। उन्होंने प्रदेश के कोने-कोने में अपने आदमी बनाए हैं। जिसे उनकी निजी उपलब्धि मान सकते हैं। लेकिन जब राजनीति में उनके अस्तित्व को चुका हुआ तय मान लिया जायेगा तब कितने उनकी हाजिरी में रहेंगे कह नहीं सकते।
यह सब आज उनके लिए लिखा है जो कळफ के झक-पहनावे में हाथ चौड़े करके घूमते हैं। उनके इस बनावटी रहन-सहन और चाल-चलन का रुतबा कितना स्थाई है इसे उन्हें उषी खान के आखिरी तीस वर्षों से समझ-बूझ लेना चाहिए-यदि वे घर में ही वैसे ही रहते हैं जैसे बाहर तो तय है उनके जाये भी उन्हें आपातकाल में कितना मान देंगे नहीं पता। अपवाद तो सब जगह मिलते हैं अन्यथा श्रवणकुमार की कथा प्रचलन में नहीं होती।

9 अक्टूबर, 2014

2 comments:

Pramod Chamoli said...

सही की संबंधो की पड़ताल

Www.nadeemahmed.blogspot.com said...

sahi kaha aapne sir