Thursday, October 23, 2014

दीपावली बाद निगम चुनावों की रिमझिम

दीपावली के इन पांच विशेष दिनों के साथ ही शहर के छुट-बड़भैया नेता और हलर-फलरिए नगर निगम चुनावों में व्यस्त हो जाएंगे। मतदान की तारीखों की घोषणा के साथ आचार संहिता लागू हो जानी है। भाजपा और कांग्रेस के अलावा कुछ निर्दलीय और अन्य पार्टियों के लोग भी सक्रिय होंगे ही। राजस्थान के चार विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों के नतीजों के बाद लगने लगा था कि स्थानीय निकायों के चुनावों में कांग्रेस उठ खड़ी होकर बराबरी पर जायेगी। लेकिन हरियाणा-महाराष्ट्र के नतीजों ने जहां कांग्रेसियों के अति उत्साह को ठण्डा कर दिया वहीं भाजपाइयों के चेहरों पर आने लगी मायूसी को भी रोक दिया है। हरियाणा-महराष्ट्र के नतीजों से पहले यह माना जाने लगा था कि बीकानेर नगर निगम चुनाव परिणामों में कांग्रेस बराबरी पर आकर ऐसी स्थिति बना लेगी कि बोर्ड और महापौर उसी का बने। 'भगवान भरोसे' की ऐसी उम्मीदों का हश्र ऐसा ही होता है। क्योंकि जरूरी नहीं कि 'भगवान और भाग्य' दोनों आपके साथ ही हो। लगभग दस महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों के बाद बेसके पड़ी कांग्रेस पर जो कुछ छाबके विधानसभा उपचुनावों के नतीजों से पड़े थे उन्हें हरियाणा-महाराष्ट्र की फटकार ने जल्द ही सुखा दिया।
कांग्रेस पिछले तीन-चार दशकों से नकारात्मक जीतें ही हासिल करती रही है, यानी सामने कोई दूसरा खास नहीं तो जीतती रही है या फिर उसने भाजपा की सरकार से ऊब के वोट ही हासिल किए हैं। स्थितियां भाजपा की भी इससे भिन्न नहीं हैं। इसलिए आजकल चुनाव परिणामों को 'उतर भीखा म्हारी बारी' कहा जाने लगा है।
कांग्रेस की तरह संगठन भाजपा का भी नहीं है, लेकिन भाजपा के साथ विशेष यह है कि उसे अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के निष्ठावानों की सेवाएं 'फोकट में' हासिल हो जाती हैं। जबकि कांग्रेस तो इस मामले में सफा ठन-ठन गोपाल है। इसीलिए चुनाव पैसों के बल पर लड़े जाने लगे हैं। हर कार्यकर्ता अपने किए का मेहनताना वसूलता है और इस चुनावी रोळ-गदोळ में बहुत से चतुर-सुजान ऐसे भी होते हैं जो बिना कुछ किए ही अच्छी खासी वसूली कर लेते हैं। इसलिए लोग इसे 'चोरी का माल मोरी मेंÓ जाना कहने से नहीं चूकते हैं। चुनाव जीतने वालों में से अधिकांश के बारे में कहा जाता है कि पहले दो साल वे पिछले चुनावों के खर्चें की वसूली करते हैं तो शेष तीन वर्षों में अपना घर-बार भरकर आगामी चुनावों के लिए खर्चा जुटाने में लग जाते हैं।
रही बात बीकानेर नगर निगम की तो इस घोर अव्यवस्थित कार्यालय से पार पाना हर किसी के बस का नहीं है तो आम आदमी की तो बिसात ही क्या। महापौर यदि शहर के लिए कुछ करना चाहे तो बहुत कुछ कर सकता है लेकिन अफसोस से कहना पड़ता है कि ऐसा अध्यक्ष या महापौर इसे हाल के वर्षों में मिला ही नहीं। सभी पद भोगने आते हैं और समय पूरा कर या तो घर बैठ जाते हैं या ऐसे किसी अवसर को हासिल करने की तिकड़म में फिर से लग जाते हैं। वर्तमान महापौर भवानीशंकर शर्मा वरिष्ठतम होते हुए भी प्रशासक के रूप में पूरी तरह असफल रहे हैं। इसलिए वे कांग्रेसी बोर्ड की और अपनी ऐसी धाक नहीं छोड़ पाए कि कांग्रेस के इस प्रतिकूल माहौल में जनता फिर से उनकी पार्टी को ही चुने।

23 अक्टूबर, 2014

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