Friday, October 17, 2014

श्रमेव जयते : भ्रमित करने का नया फण्डा

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि दबंग की है और उनकी कार्यशैली करतूतें भी। बावजूद इसके वे प्रतीकों और अंग्रेजी से आतंकित लगते हैं। उनका भाषण सुन लो, ऐसे कई हिन्दी शब्द जो उनकी भाव भूमि का हिस्सा होंगे, बावजूद इसके उनके स्थान पर वे अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ते हैं, अलावा इसके वे जो भी संक्षेपासार (एब्रीविएशन) घड़ते हैं वे सभी अंग्रेजी में होते हैंजिनमें से कई तो बेतुके भी लगते हैं।
मोदी गांधी, पटेल, शास्त्री, नेहरू आदि-आदि का उल्लेख करने से नहीं चूकते। वे उदार हो गये हैं या इन नामों का उपयोग भर कर रहे हैं। हालांकि उनके इन उल्लेखों में सुभाषचन्द्र बोस और भगतसिंह अभी तक जरूर उपेक्षित हैं, हो सकता है इनको भुनाने का कोई अन्य अवसर उन्होंने तय कर रखा हो।
कल मोदी ने 'श्रमेव जयते' के आगाज के साथ जो उद्बोधन दिया वह इस बाजारू अर्थव्यवस्था में बनावटी इसलिए लगा, क्योंकि यह सब बदलाव वे धंधेबाजों को आकर्षित करने के लिए ही कर रहे हैं। ऐसे पगलिए तो कांग्रेस भी 1992 के बाद तब से करती रही है जब वित्तमंत्री मनमोहन सिंह बने थे। चूंकि कांग्रेस समाजवाद के लेबल को पूरी तरह उतार नहीं पायी थी सो उनके किए में एक ठिठकन थी, जबकि भारतीय जनता पार्टी अपने कायान्तरण से पहले जनसंघ के समय भी और बाद में भी 'समाजवादी' जैसे बोझे से हमेशा मुक्त रही। हालांकि 1980 के भारतीय जनता पार्टी के पहले मुम्बई अधिवेशन में 'गांधीवादी समाजवाद' जैसा शब्द उच्चारित जरूर हुआ था लेकिन बाद में उसको ब्राण्ड के रूप में प्रस्तुत करना तो दूर व्याख्या करना भी भाजपा ने कभी जरूरी नहीं समझा।
कांग्रेस ने अपने दस वर्ष के संप्रग शासनकाल में बेधड़क होकर घोटाले होने दिए लेकिन समाजवाद जैसे 'पुराने-पाप' से मुक्त होने की इच्छाशक्ति वह नहीं दिखा पायी। इसलिए वह खुले बाजार को आमन्त्रित भी करती रही और गरीबों, शोषितों, मजदूरों और कमजोर वर्गों का हितैषी होने के दिखावे के चक्कर में खुलकर वह छूटें भी नहीं दे पायी जो बाजार को चाहिए थीं।
भारतीय जनता पार्टी की प्रतिबद्धता समाज के तीसरे-चौथे वर्ग के लिए कभी रही नहीं। पार्टी स्थापना के बाद के कुछ वर्षों में पार्टी में आए कुछ 'कुजातियों' के प्रभाव में अन्त्योदय जैसे कुछ सार्थक योजनाएं जरूर लागू की गईं। भाजपा का असल ऐजेंडा सामाजिक-आर्थिक तौर पर समर्थों का पोषण रहा है। पिछले तीन दशकों में रही सरकारों की नीतियां भी ऐसी रहीं कि इस बाजारू जाजम पर नरेन्द्र मोदी को बेधड़क विचरने की अनुकूलता हासिल हो गई?
गत साढ़े चार महीनों में मोदी द्वारा आहूत योजनाओं में एक को भी ऐसा नहीं कहा जा सकता जो देश के सर्वाधिक उपेक्षित के लिए होनारे, प्रतीक और घोषणाएं वे चाहे जैसी भी करते रहे हों। कल का 'श्रमेव जयते' अभियान भी दिखावे के तौर पर श्रमिकों के हित में हैं लेकिन अनुकूलताएं सभी नियोजकों के लिए ही सुलभ करवाई जा रही हैं। जरूरत इंस्पेक्टर राज खत्म करने की नहींदेश से भ्रष्टाचार और उसके बॉयप्रॉडक्ट हरामखोरी को खत्म करने की है। वैसे भी जो श्रम कानून बचे हैं उनको भ्रष्टाचार ने पंगु बना रखा है। इन कानूनों का पालन करने की छूट की रिश्वत तय है, नय प्रावधानों के तहत होना बस इतना है कि रिश्वत की गुंजाइश कम हो जायेगी। ऊपर बैठे लोग खुद ईमानदार होना नहीं चाहते और उम्मीद करते हैं कि नीचे वाले हो जाएं। ऐसा किसी भी तरह संभव नहीं। ऐसे में असंगठित क्षेत्र सहित दिहाड़ी मजदूरों के दिन कभी सुधरेंगे, लगता नहीं है, क्योंकि ऐसा पिछली सरकारों के ऐजेंडे में था और ही मोदी के। मनरेगा में चाहे कितना भी भ्रष्टाचार हो उसका बायप्रॉडक्ट मजदूरी बढऩा जरूर दबे-कुचले वर्ग का हितैषी साबित हुआ है। मनरेगा के चलते खुली मजदूरी करने वालों की दिहाड़ी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है अन्यथा जो उन्हें अब मिल रहा है उससे आधा भी नहीं मिलता। रही बात भ्रष्टाचार की तो शेष सभी जगह भ्रष्टाचार धड़ल्ले से चले और मनरेगा में ऐसा हो, ऐसी उम्मीदों को व्यावहारिक कैसे कहा जा सकता है? नेता ईमानदार होंगे तो शासन-प्रशासन भी ईमानदार हो जायेगा। ऐसे में छुटभैयों के सुधरते देर नहीं लगेगी। ऐसा करने की कवायद तो दूर मोदी ने मंशा तक नहीं जताई है। केवल ये कहने भर से कि ' मैं खाऊंगा और खाने दूंगा' कुछ होना-जाना नहीं है।

17 अक्टूबर, 2014

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