Tuesday, October 14, 2014

लोकतंत्र और तकनीक

वैसे तो मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मनुष्य के लिए प्रत्येक दूसरा, फिर वह चाहे सजीव हो या निर्जीव, हमेशा एक अजूबा ही बना रहा है। जिनके साथ हम रहते हैं या जिनसे पर्याप्त परिचय है, उन्हें भी क्या हम पूरी तरह कभी जान समझ पाते हैं? शायद क्या, पक्के तौर पर नहीं। पूरी तरह अवकाश लेकर चेतना को टटोलेंगे और चर-अचर के उन सभी निकटस्थों और परिचितों को देखना-समझना शुरू करेंगे तो उक्त कहे की पुष्टि होना शुरू हो सकती है। इसलिए यदि कोई अपने लिए पूर्ण ज्ञाता होने का दावा करता है, ऐसा मान लेना ही क्या उसके अज्ञान की मुनादी नहीं है? दूसरों की बात ही क्यों, कोई खुद को भी कितना जानता है, सम्भव कर पाएं तो आत्मावलोकन करके देख लें।
विचारणा में यह सब इसलिए धमका जब खबरों की स्थाई सुर्खी बन चुका स्त्रियों के प्रति पुरुषों का 'व्यवहार' असहज करने लगा। ऐसा कहने का यह आशय तो नहीं है कि ऐसे व्यवहारों की पुनरावृत्तियां इस दौर में बढ़ी हैं, हो सकता है पहले कभी इससे ज्यादा और कम भी रहा हो। जबकि समझ में यह आया कि समाज ने स्त्री को मुखर होने की छूट दी है और ही स्त्रियां कोई दुस्साहसी हुई हैं। तकनीक ने जिस तरह देखने समझने की सीमाओं को विस्तार दिया, वैसे ही उसने अभिव्यक्ति की सुविधाएं और अवसर भी उपलब्ध करवा दिए। अन्यथा इन पर सामान्यत: पुरुष का ही एकाधिकार रहा है। इस तरह विचारें तो लोकतंत्र में तकनीक ही तो खुलेपन की गुंजाइश उपलब्ध करवाती है, लेकिन लोकतंत्र में दूसरे की स्वतंत्रता आपकी स्वतंत्रता की सीमा को तय कर देती है। इसलिए वह निरकुंश नहीं होने देता, लेकिन तकनीक के साथ ऐसा संभव नहीं है। उसे जितना अपने लिए उपयोगी-दुरुपयोगी बनाओगे वह बनने को बाध्य है। जबकि तकनीक का उपयोग किस अच्छे-बुरे मकसद से कर रहे हैं, इसका कोई 'गवर्नर' उसके पास नहीं है। तकनीक की यही कमी इसे लोकतंत्र से कमतर करती है। लोकतंत्र और तकनीक की एक व्यावहारिक समानता और भी है। लोकतंत्र के सुख का सामथ्र्य जिस तरह समाज के कमजोर तबके के पास नहीं देखा जाता, ठीक यही बात तकनीक पर भी लागू है। तकनीक भी सामाजिक-आर्थिक कमजोरों के लिए उतनी और उस तरह सुलभ नहीं हो पाती है जिस तरह सबलों और समर्थों को हो जाती है। कमजोर को लोकतंत्र और तकनीक, दोनों का ही सुख लेना है तो उसे इसके लिए संघर्ष करना होगा, यह दोनों ही उसे सहज सुलभ नहीं हो पाते।
कमजोरों में समाज का वह प्रत्येक वर्ग आता है जो पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमतर है या उसे कमतर मान लिया गया है। इस कमतरी में सर्वाधिक प्रभावित स्त्री होती है। स्त्री यदि सबल परिवार की हो तो भी उसका दर्जा पुरुष से कम ही तय माना गया है।
जिस तरह लिंग को जन्म के आधार पर तय माना गया है, ठीक वैसे ही दूसरी या तीसरी-चौथी हैसियत भी जातिविशेष में जनमने भर से तय हो जाती है। यह तो हो गया जन्मजात मामला और समान जातियों में भी कोई आर्थिक रूप से कमजोर है तो उसे व्याख्यायित करने के लिए मनुष्य ने एक और युक्ति ईजाद कर रखी हैभाग्य की। यानी स्त्री है और वह सामाजिक हैसियत से किसी दूसरे, तीसरे या चौथे दर्जे के कुल में पैदा हुई है तो उसकी हैसियत केवल स्त्री होने भर से एक दर्जा और कम हो जाती है।
लिंग और भाग्य से बंधी मान ली गई इन असमानताओं को कम करने की बड़ी भूमिका लोकतंत्र और तकनीक की है। लोकतंत्र की भूमिका को सकारात्मक कह सकते हैं क्योंकि इसका नियन्त्रण दुतरफा है लेकिन तकनीक केवल मनुष्य के नियन्त्रण में है। वह ऐसी भूमिका के लिए अक्षम है कि वह मनुष्य को उसकी सीमा का आभास करवा सके। इसीलिए तकनीक के उपयोग के लिए मनुष्य का विवेकी होना जरूरी है। अन्यथा तकनीक का उपयोग बढऩे के साथ आपसी रिश्तों में पेचीदगियां बढ़ेंगी। ऐसा आए दिन घटित घटनाओं से देख-समझ सकते हैं। तकनीक ने सुख के साधन उपलब्ध करवाये तो दु: के कारण और आशंकाएं भी दैनंदिन जीवन में बढ़ा ही दीं।

14 अक्टूबर, 2014

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