Wednesday, October 29, 2014

कालेधन की व्यथाकथा

लोक में कैबत हैसीधी अंगुली घी नहीं निकलता, इस कहावत से कल साक्षात् तब हुआ जब कालेधन के मामले में केन्द्र की मोदी सरकार को फटकार लगाते हुए उच्चतम न्यायालय ने भौंहे तानी और टुक-टुक नाम बताने की नीयत बना बैठी केन्द्र सरकार से कह दिया कि उन सभी नामों की सूची न्यायालय में पेश करें जिनका काला धन विदेशों में जमा है। मोदी के वित्त मंत्री अरुण जेटली के कहे अनुसार सीलबन्द लिफाफे में 627 नामों की सूची आज न्यायालय को यह कहते हुए सुपुर्द कर दी है कि इसमें आधे तो अप्रवासी भारतीय हैं। न्यायालय ने बन्द लिफाफा विशेष जांच दल को सौंपते हुए जांच को मार्च 2015 तक निबटाने के निर्देश दे दिए हैं।
मोदी सरकार ही क्यों पिछली मनमोहन सरकार ने भी इसी अप्रेल में न्यायालय को ऐसे लोगों के मात्र अठारह नाम ही बताए थे, जबकि माना यह जा रहा था कि यह सूची छह सौ आठ नामों की हो सकती है। देश के आर्थिक ढांचे में नासूर की तरह फेल चुके भ्रष्टाचार का मुख्य उत्पाद अब कालाधन ही हो गया है, जितना यह देश के बाहर जमा है उससे ज्यादा यह यहां के दबंगों के पास बताया जाता है। देश और प्रदेशों की अब तक सरकारें इस कालेधन की संरक्षक की ही भूमिका निभाती रही है। 2013 के सितम्बर में नरेन्द्र मोदी ने अपना चुनाव अभियान शुरू करते हुए जिन बातों से जनता को उन्होंने मोहना शुरू किया उसमें सबसे ज्यादा लालच पैदा करने का प्रलोभन विदेशों में जमा इस कालेधन से सम्बन्धित ही था। अपनी सभाओं में विशाल जनसमूह को वे कहते नहीं थकते थे कि उन्हें प्रधानमंत्री बना दो, सरकार सम्भालने के सौ दिन में ही ऐसे धन को देश लौटा लाएंगे, और यह भी कि यह रकम इतनी मोटी है कि प्रत्येक भारतीय के हिस्से तीन-तीन लाख रुपये सकते हैं। जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी अभावों में जीती है और एक तिहाही आबादी प्रतिदिन भर पेट भोजन का जुगाड़ नहीं कर पाती हो, उसके लिए इससे बड़ा प्रलोभन अन्य कोई हो ही नहीं सकता। परिवार के प्रत्येक सदस्य के हिस्से जब तीन लाख आने की बात डंके की चोट कही गई तो जनता को भ्रमित होना ही था। यद्यपि तब के भाजपा अध्यक्ष और आज के गृहमंत्री राजनाथसिंह ने यह मुहलत डेढ़ सौ दिन की चाही थी, मुहलत यह भी पूरी हो चुकी है। यूं तो योग-धंधी रामदेव ने भी प्रत्येक के हिस्से आने वाली राशि पन्द्रह लाख बताई थी, उसे अनाधिकृत मान लेते हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी ने तीन-तीन लाख प्रत्येक भारतीय के हिस्से आने की बात कही तब वे केवल गुजरात के मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार संवैधानिक पद पर थे बल्कि देश की दूसरी सबसे बड़ी कहलाने वाली पार्टी के घोषित प्रधानमंत्री भी थे। ऐसे में वे, उनकी सरकार इस मुद्दे पर बगले झांकती नजर आए तो साख को बट्टा लगना ही है। हालांकि उच्चतम न्यायालय की सक्रियता अब उसकी नीयत पर बट्टा शायद ही लगने दे क्योंकि वह हुड़ा लगा-लगा कर इस मुद्दे पर इन्हें लाइन पर ले आएगी। लेकिन विदेशों में जमा कालेधन का पता लग भी जायेगा तो क्या यह सम्भव होगा कि उसे बैंकिंग या भौतिक रूप से यहां लाकर प्रत्येक भारतीय के हिस्से बराबर बांटा जा सकता है, हरगिज नहीं। क्योंकि कालेधन के निबटारे की तय कानूनन प्रक्रिया में, टैक्स, पैनल्टी आदि-आदि वसूली होने पर शेष धन को उसके मालिक को लौटाने का ही प्रावधान है। माना यह टैक्स और पैनल्टी ही अच्छी-खासी हो जायेगी, लेकिन यह जायेगी तो सरकारी खजाने में ही न। और इस सरकारी खजाने का दुरुपयोग जिस ढंग से होता है वह किसी से छिपा नहीं है। देश के प्रधानमंत्री रहते राजीव गांधी ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया था कि यह सरकारी धन जब तक सही गंतव्य तक पहुंचता है तब तक उसमें से पचासी प्रतिशत राशि कालेधन में परिवर्तित होकर बिचौलियों के खजाने में चली जाती है।
अगर इस राशि का हश्र यही होना है तो क्यों जोर इस बात पर हो कि इस व्यवस्था का सत्यानाश कर चुके भ्रष्टाचार से निबटा जाय। ऐसी मंशा किसी सरकार की दीखती और ही किसी नेता की, मोदी की भी नहीं, उनकी पिछली करतूतें और हाल के पगलिए यही जाहिर करते हैं।
रही बात प्रत्येक भारतीय के हिस्से तीन-तीन लाख रुपये आने के प्रलोभन की तो चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय दोनों ही ऐसी व्यवस्था और नियम दें जिससे भविष्य में कोई पार्टी और नेता इस तरह की असंभव और अव्यावहारिक आशाएं बंधा कर भोले-भाले मतदाताओं को ठग नहीं सके। क्योंकि इस तरह की ठगी का प्रचलन वर्षों से केवल जारी है बल्कि हर बार पिछली से बड़ी ठगी की युक्ति ये नेता लोग ले आते हैं और जनता इतनी भोली या उतावली होती है कि खाई से निकलने की उत्कंठा से कुएं में गिर पड़ती है।

29 अक्टूबर, 2014

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