Tuesday, July 8, 2014

तात्कालिक समाधानों से अलग भी विचारें

नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद का काल दरअसल पारगमन का काल है। गत बीस सालों में सरकारी और निगमों में पद बहुत कंजूसी से भरे गये। दफ्तरों के काम में शिथिलता बढ़ी और रिश्वत का लेन-देन बेधड़क होने लगा। कोई ट्रैप होता भी है तो उसे या तो मूर्ख माना जाता है या कह दिया जाता है कि 'बापड़ै रा भाग खराब चाले' यानी वह खुद खराब नहीं, वह तो आज की रीत ही चला रहा है।
पार्टी में पुराने बुजुर्गों को मात देने के लिए इन्दिरा गांधी ने समाजवाद को युक्ति के रूप में आजमाया जो भ्रष्टाचार और टे्रड यूनियनों के केवल अधिकारों के प्रति आग्रहों के चलते जल्दी ही हांफ गया। पिछली सदी के उस आठवें दशक से स्थिर सरकारों का दौर जैसे विदा हो लिया। 1984 में जरूर बम्पर बहुमत से सरकार बनी थी जो अब जाकर उसी चांके पर आई है।
बीकानेर में कलक्टरी पर लगातार कई तरह के प्रदर्शन और धरने लगते रहते हैं। कभी संविदा कर्मचारी स्थाई होने का प्रदर्शन करते हैं तो कोई न्याय मिलने पर रोष प्रकट करने को इकट्ठे हो लेते हैं। अरबन बैंककर्मी तो अपनी मांगों के लिए पिछले चार सालों से डेरा ही कलक्टरी पर डाले हैं। ये सब तो ठीक है लेकिन सामान्य सार्वजनिक सेवाओं और सुविधाओं के लिए परेशान समूहों को यदि कलक्टरी पर प्रदर्शन करना पड़ता है तो विचारणीय है।
बीकानेर नगर निगम के लिए ठेके पर कचरा उठाने वाले ट्रैक्टरों के संचालकों ने इन दिनों काम रोक रखा है। उनका कहना है कि पिछले सत्र से जो नई दरें लागू होनी थी वह अभी तक नहीं हुई। ऐसे में पुरानी दरों पर काम करना संभव नहीं। इसके चलते शहर में जगह-जगह अस्थाई अकुर्डियां गंध मारने लगी हैं। इनके आसपास रहने वालों और व्यापार करने वालों के लिए गुजर-बसर करना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे ही बिजली विभाग के कर्मचारियों ने विभाग द्वारा अधिकांश नया और रख-रखाव के काम ठेके पर करवाए जाने का विरोध करते हुए कल प्रदर्शन किया। अधिकांश महकमों की यही स्थिति है या होने जा रही है। केन्द्र में नयी सरकार आने के बाद से ही यह आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी है कि रेल में भी अब निजीकरण को बढ़ावा दिया जाएगा।
सार्वजनिक सेवाओं पर भरोसा उठ जाने के चलते ही निजीकरण और ठेके को बढ़ावा मिल रहा है। इनके विरोध में होने वाले प्रदर्शनों का कुछ तो असर हो रहा है। लेकिन भरोसा उठने की नौबत क्यों आई इस पर कोई बात करना नहीं चाहता। किसी व्यवस्था की असफलता पर विचार और उपाय नहीं करेंगे तो वैकल्पिक कोई भी व्यवस्था ले आएं वह असफल होगी।
देश में जब तक भ्रष्टाचार, कालाधन, हरामखोरी जारी रहेगी, कोई व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगी। बार-बार के ऐसे बदलावों और प्रयोग की कीमत देश और समाज चुका रहा है। कभी इसका हिसाब भी हमें लगाना चाहिए। तात्कालिक समाधानों से संतुष्ट होने की प्रवृत्ति छोडऩी होगी। अन्यथा देश एक दिन ऐसे मुकाम पर होगा जब तब बदतर स्थितियों से निकलने का उपाय बचेगा और विकल्प।

8 जुलाई, 2014

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