प्रदेश में कांग्रेस की पिछली सरकार के समय अध्यादेश के जरीए 21 सितम्बर,
2013 को अस्तित्व में आया बीकानेर का तकनीकी विश्वविद्यालय भाजपा की नई बनी सरकार के संयुक्त सचिव के आदेश के बाद इसी चार जुलाई से
अस्तित्वहीन हो गया। देश और दूसरे प्रदेशों का तो ध्यान नहीं लेकिन राजस्थान के गठन के बाद मात्र दस माह की उम्र लेकर आया यह विश्वविद्यालय 'विधाता के लेख' के चलते नहीं राजनीति और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की लापरवाही के चलते इस क्षेत्र के लिए मजाक बन गया है।
आजादी बाद से यह क्षेत्र राजनीतिक उदासीनता व जागरूक नागरिकता के अभाव के चलते छला जाता रहा। इतना ही नहीं अवसरानुकूलता से हासिल में भी सौतेला व्यवहार के शिकार होने के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। शहर के बाशिन्दों में जागरूक नागरिकता के अभाव का सबसे बुरा उदाहरण तो बीच शहर के कोटगेट और सांखला, दो रेल फाटक हैं जिसके चलते वे प्रतिदिन बिना नागा परेशान होते हैं लेकिन पिछले पचीस सालों से इस समस्या का भान होने और भुगतते रहने के बावजूद किसी व्यावहारिक समाधान पर एक राय नहीं बना सके। जनप्रतिनिधियों की तो बात ही निराली है। इन वर्षों में चाहे यहां के सांसद रहे हों या विधायक, इनमें से अधिकांश को या तो इस समस्या की पीड़ा रही नहीं और जिन-जिन ने पीड़ा होने का स्वांग किया वे खुद इतने भ्रमित रहे कि न तो कुछ करवा पाए और न ही किसी व्यावहारिक समाधान पर आम-आवाम को एक राय पर तैयार कर पाए। नेताओं और जनप्रतिनिधियों की इस मुद्दे पर सक्रियता की बानगी तो ये है कि जब भी उन्हें इस मुद्दे पर सक्रियता का स्वांग करना होता है तो वे झट से रेल बाइपास की बीटणी चूसने लग जाते हैं। ऐसे आलम से तो लगता है कि आने वाले वर्षों में इन दोनों रेल फाटकों की समस्या से थोड़ी-बहुत निजात भी यहां के बाशिन्दों को शायद ही मिले।
यहां के लोगों के खैरख्वाह होने का दावा करने वाले इन नेताओं और जनप्रतिनिधियों का हाल तो तकनीकी विश्वविद्यालय के मुद्दे से भलीभांति समझा जा सकता है। इस विश्वविद्यालय के लिए आए अध्यादेश को कानूनी जामा पहनाने के लिए पिछली सरकार ने पहले तो विधेयक समय पर विधानसभा के पटल पर रखा ही नहीं, आखिरी दिन रस्म अदायगी के तौर पर रखा गया तो शहर के दोनों भाजपा विधायकों सहित जिले के सातों विधायक पता नहीं कहां खोए थे कि सदन में विपक्ष के नेता भाजपा के गुलाबचन्द कटारिया ने विरोध जता दिया और विधेयक आया-गया हो गया।
पिछले महीने के उत्तराद्र्ध में सरकार जब हमारे द्वार आई हुई थीं और आखिरी दिन जब विदा हो रही थी तो यहां के सक्रिय नागरिक चातक पक्षी की तरह मुंह खोले इन्तजार करते रहे कि संयोग से सही, कुछ तो आ गिरेगा। सभी जानते हैं कुछ नहीं गिरा। रेल फाटकों से भटभेरा करते और तकनीकी विश्वविद्यालय के मामले में हुई ठगाई को कोसते रहो। हमारी नागरिकता में जागरूकता का अभाव रहेगा तो यही सब देखने-भुगतने को मिलेगा। रही बात जनप्रतिनिधियों कि तो जैसे हम वैसे ही वह।
कल की ही बात है। श्रीकोलायत से पहली बार जीते कांग्रेस के विधायक नवयुवक भंवरसिंह भाटी ने जब विधानसभा में तकनीकी विश्वविद्यालय का मुद्दा उठाया तो उनके पक्ष में जो दो भाजपा विधायक बोले उनमें से एक बीकानेर मूल के विद्याधरनगर, जयपुर के विधायक नरपतसिंह राजवी थे तो दूसरे जिले के खाजूवाला से विधायक डॉ. विश्वनाथ मेघवाल। जिले से पांच विधायक और भी हैं, हो सकता है वे तत्समय सदन में न हों लेकिन यदि होते तो कुछ धन-धन करते इसकी उम्मीद कम ही थी। करते भी तो रस्म अदायगी भर। कहने को तो नेता प्रतिपक्ष न केवल इस जिले से हैं बल्कि उनकी पढ़ाई-लिखाई, धंधा-पानी, हासिल-खोया सब यहीं से है। शहर के एक विधायक गोपाल जोशी पचास साल से ज्यादा समय से यहीं से राजनीतिक हैसियत पाए हैं तो शहर की दूसरी विधायक सिद्धीकुमारी भी कोई दूसरी नहीं है। लेकिन शहर के लिए ये चूं तक नहीं करते।
सिद्धीकुमारी तो लगता है कि विधायकी को बपौती मानकर ही भोग रही हैं। यहां के बाशिन्दे भी उन्हें ऐसा आभास जब तब देते ही रहते हैं अन्यथा अपने विधायकों से पिछली विधायकी का तलपट वे क्यों नहीं पूछते कि कितने दिन विधानसभा में गये, क्षेत्र के लिए क्या किया, यहां के बाशिन्दों के दुख-दर्द सुनने कब-कब और कहां-कहां गये? नागरिकों में ऐसी जागरूकता नहीं आएगी तब तक सिवाय भाग्य को कोसने के, हिस्से कुछ नहीं आना है।
17 जुलाई, 2014
No comments:
Post a Comment