आधुनिक शासन प्रणालियों में शासन चलाने के लिए मुख्य जरूरत धन के आयोजन के लिए सम्पदा, राजस्व और उसके स्रोतों, लागत, देनदारियों और खर्चों आदि के लिए किए जाने प्रावधानों को बजट कहा जाता है। पहले कभी इस पारिभाषिक शब्द की जगह संभवत: 'जमा-खर्च' से ही काम चला लिया जाता होगा क्योंकि तब आज की तरह औपचारिक ही सही जवाबदारियां तय नहीं थी और न ही शासन-प्रशासन को हांकने में इतनी पेचीदगियां थीं।
देश और प्रदेश में वैसे तो बजट के माह फरवरी-मार्च तय हैं। चूंकि दिसम्बर में प्रदेश विधानसभा के चुनाव थे और अप्रेल में लोकसभा के सो एकबारगी अन्तरिम उपाय कर लिए गये थे। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की नई बनी सरकार ने अपना बजट इसी दस जून को पेश किया तो सूबे की वसुंधरा सरकार ने कल यानी चौदह जुलाई को इसे सदन के पटल पर रखा। इन बजटों में देश-प्रदेश की बड़ी जनसंख्या की उत्सुकता होती है, नहीं लगता। कुल आबादी का बहुत छोटा हिस्सा जो व्यापार-उद्योग में लगा है या नौकरी-पेशे में या वे थोड़े से लोग जो इनके हित साधक की भूमिका में होते हैं-ऐसों की ही रुचि और उत्सुकता इन बजटों में होती है। आबादी का शेष बड़ा हिस्सा जिसका इन बजटों से लेना-देना भी है, अभी तक नहीं समझ पाया है कि दरअसल वही इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। जिस उत्सुक समूह का जिक्र किया है वे सभी बजट से पहले और बाद में किसी न किसी युक्ति से अपनी जैसी-कैसी अनुकूलता साध लेते हैं। जैसा कि ऊपर लिखा जो बड़ा समूह इन बजटीय आयोजनों से अपने को निर्लिप्त किए हुए है या अपना कोई सरोकार नहीं समझता ऐसों की समस्याओं का मुख्य कारण उनकी यही प्रवृत्ति है। अन्यथा उन्हें वोट के समय ही तय कर लेना चाहिए कि वे ऐसे को चुनेंगे ही नहीं जो राज में उनकी हिस्सेदारी या तो मानेगा नहीं, मानेगा तो खैरात पाने की पात्रता रखने से ज्यादा समझेगा नहीं।
आजादी बाद से जो आर्थिक नीतियां बनाई गई और जिस आर्थिक ढांचे को अपनाया गया उसके नियन्ताओं की मंशा चाहे अच्छी रही हो पर उपाय उन्होंने गलत चुने। इसलिए दूसरे विकसित देशों को देखकर कभी औद्योगिकीकरण तो कभी समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। पिछली सदी में जब लगा कि सभी आर्थिक समस्याओं का समाधान व्यापार के वैश्वीकरण में है तो इसे लपकते भी हमने देर नहीं लगाई। कभी इस बिना पर विचार ही नहीं किया कि हमारे देश की सामाजिक तासीर को कितना बदलने की और किस तरह की आर्थिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं की जरूरत है जिससे कि देश का प्रत्येक नागरिक अपनी न्यूनतम जरूरतें बाइज्जत पूरी कर सके।
केन्द्र और प्रदेश की सरकारों के बजटों से देश के अधिकांश लोगों ने जो अलग उम्मीदें बना लीं थी उनमें से किन्हीं को झटका तो किन्हीं को धक्का ही लगा होगा। देश की अर्थव्यवस्था को जिस रास्ते पर डाल दिया गया है उससे इधर-उधर होने की कोई गुंजाइश है ही नहीं, कुछ अलग आशाएं बनाई तो यह भ्रम ही था हमारा। 'विनायक' ऐसा आभास चुनाव अभियान के दौरान एक से अधिक बार दे चुका है। रही बात अच्छे दिनों की तो अच्छे दिन देश के किस समूह या वर्ग के लिए आएंगे? जो कुछ चल रहा है उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते आम-आवाम के लिए अच्छे दिन आने की गुंजाइश तो बनने से रही और भ्रष्टाचार को खत्म करने की इच्छाशक्ति न पिछली सरकारों की थी और न इनकी है। इस सरकार ने भी अपने बजट में भ्रष्टाचार को खत्म करने के उपाय घोषित करना दूर उस पर किसी तरह के अंकुश का आभास देने की मंशा भी नहीं जताई है। आम-आवाम भ्रमित होता है तो उसे भ्रमित किया जाता रहेगा, कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा तो कभी तीसरे-चौथे राजनीतिक गिरोहों द्वारा।
15 जुलाई, 2014
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