Saturday, July 26, 2014

बदतर होते ‘समाज’ के लिए दोषी कोई दूसरा नहीं

गुरुवार शाम को बीकानेर के केन्द्रीय सुधारगृह में हुई हिंसा का प्रशासनिक विफलता के नजरिये से तो आकलन हो लिया, लेकिन क्या केवल इतना भर पर्याप्त है? यद्यपि प्रशासन भी इसी समाज का हिस्सा है और समाज की नकारात्मकताओं से प्रशासन को अछूता रखने की आकांक्षा सच से आंखें मोडऩा है।
समाज का जब जिक्र करते हैं तो इसके वे आदर्श मानी नहीं रहे जो पूरे समाज की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करता हो। समाज के मानी सिमटकर उस सीमित दायरे के हो गए हैं जिसमें समाज का वह बहुत छोटा-सा हिस्सा जिसको कोई--कोई सत्तारूप हासिल है- यानी जो शासन, धन, उच्च जाति, वर्ग, धर्म, बाहुबल और लैंगिक तौर पर सबल और समर्थ हैं। आजादी बाद के इन छासठ वर्षों में प्रतिष्ठा उन्होंने ही हासिल की जिनके पास उक्त में से कोई-सा सत्तारूप है। जाति, धर्म और लैंगिक सत्तारूप तो समाज व्यवस्था और प्रकृति की देन है, हालांकि इनकी सबलता भी बनाये रखने में असामाजिक और अमानवीय चेष्टाओं की भूमिका कम नहीं है। अलावा इनके शासन, धन और बाहुबल जैसे सत्तारूपों को हासिल करने की कुचेष्टाओं को भुंडाना तो दूर की बात समाज चर्चा से भी कन्नी काटने लगा है।
जो कुछ घटित हो रहा है उस सब के लिए पूरे समाज को कठघरे में खड़ा करना ज्यादती इसलिए कहा जाएगा क्योंकि समाज के बड़े हिस्से को इस सबके लिए तो अवकाश है और ही इस पर विचार करने की जरूरत वह मानता है। इसलिए ले-देकर समाज का वही सबल-समर्थ छोटा हिस्सा है जिसने समाज की सभी महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं सायास-अनायास हथिया लीं। यहां तक कि चुनाव परिणामों जैसी कभी-कभार दिखने वाली सामूहिक अभिव्यक्ति की भी पड़ताल करें तो पाएंगे कि जिस ओर सबल और समर्थ समाज मुखातिब होता है शेष समाज भी उसी ओर मुंह बाये खड़ा हो जाता है। पिछले पचास साल में ऐसे तीन उदाहरण से 1977, 1984 और 2014 के आम चुनाव के परिणामों से इसे समझ सकते हैं।
कहेंगे कि ले-देकर बात राजनीति पर ले आए। इस पर एतराज इसलिए नहीं होना चाहिए, क्योंकि आजादी बाद से राजनीति ही सामाजिकता की धुरी बन गई है राजनीति को पेशे के रूप में अपना चुके सबल और समर्थ लोग शेष सभी सत्तारूपों को अपने लाभ के लिए पोसते और उनका उपयोग करते रहे हैं। इस सारे खेल में कर्तव्य, नैतिकता, शुद्ध आचरण और मानवीयता की कोई भूमिका दूर-दूर तक नहीं होती। हो सकता है पाठक इन शब्दों पर खीजने लगें और इस तरह की बातों को इस युग में सिरफिरी कहने लगें। लेकिन क्या हमारा समाज आज जिस मुकाम पर पहुंच गया उसे किसी सुकून तक पहुंचाने का इन आदर्श कहकर नाकारा घोषित कर दिए शब्दों के सार के अलावा कोई विकल्प है? राजनीति ने अपने स्वार्थों के लिए भ्रष्टाचार, जाति, धर्म, धन, बाहुबल और लैंगिकता को आपस में इस तरह गूंथ दिया है कि जिनके पास भी यह सत्तारूप नहीं है समाज में उनकी कोई महती भूमिका भी नहीं है। इसीलिए जो इस सबल और समर्थ के पाळे में नहीं हैं उनमें से कुछ इस पाळे में आने का दुस्साहस करते हैं और जो इस पाळे में गया वह लगातार शीर्ष की ओर बढऩे या जिस 'ऊंचाई' तक पहुंच गया है, उस मुकाम पर बने रहने को यथा सामथ्र्य सभी हथकण्डे आजमाता और अपनाता है।
समाज में गैर कानूनी काम करने वालों को कानून अनुसार जेलों में रखने की व्यवस्था है। कुछ कुयोग से तो कुछ चूक से यहां तक पहुंचते हैं। आजकल कुछ ऐसे भी हैं जो इन जेलों को सबसे सुरक्षित स्थान मान कर जुगाड़ भिड़ा कर पहुंच जाते हैं। अपराधी कहे जाने वाले अन्दर हैं या बाहर इन सभी का कोई कोई रिश्ता राजनेताओं और किसी--किसी सत्तारूप सज्जित समाज के मौजिजों से होता हैं। इस बात पर भरोसा नहीं हो तो इस पर ईमानदार शोध करवा लें, सच सामने जायेगा। वैसे शोध की जरूरत इसलिए नहीं क्योंकि जो भी कमोबेश जागरूक हैं उन्हें इसकी वाकिफीयत है। ये सभी अपराधी जरूरत पडऩे पर हमेशा अपनी 'काबिलीयत' और 'सामथ्र्य' अनुसार इन विभिन्न सत्ताधीशों के काम साजते हैं और अपनी 'काबिलीयत' और 'सामथ्र्य' में इस तरह कुछ और इजाफा कर लेते हैं।
'विनायक' इसीलिए कहता रहा है कि समाज की धुरी बन चुके ये नेता सुधर जाएं तो अधिकांश समस्याओं का समाधान मिल जायेगा। असल में आम आवाम जागरूक हो जाएं तो इन सत्ताधीशों के निर्बल होते देर नहीं लगेगी। अन्यथा वर्तमान से भी बुरे दौर के साबके से लगातार मुठभेड़ करने के लिए अपने को तैयार रखना होगा।

26 जुलाई, 2014

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