Friday, July 11, 2014

बजट किनके लिए?

नरेन्द्र मोदी सरकार का पहला आम बजट वित्तमंत्री अरुण जेटली ने प्रस्तुत कर दिया है। कल दिन भर खबरिया चैनलों में और आज सुबह के अखबारों में इसके विशेषज्ञों के विश्लेषणों की भरमार है। दो सटीक प्रतिक्रियाएं साझा करने पर इस बजट की तासीर समझ में जानी चाहिए। आर्थिक मुद्दों को अच्छे से समझने वाले स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर ने इसे 'केसरिया होठांलाली में चिदम्बरम का बजट' बताया तो आर्थिक मामलों के एक अन्य जानकार प्रसनजोत ने इसे संप्रग-3 का बजट बताया। संप्रग के वित्तमंत्री चिदम्बरम भी ऐसा ही मान रहे हैं। इन्हीं बातों के बीच एक हास्यास्पद विरोधाभासी वक्तव्य संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी का पढऩे को मिला जिसमें वे एक तरफ तो कहती हैं कि ये हमारे ही कार्यक्रमों की नकल का दस्तावेज है और इसी वक्तव्य में आगे उन्होंने यह भी कह दिया कि इस बजट से अर्थव्यवस्था रफ्तार नहीं पकड़ेगी, बल्कि कुछ धीमी ही पड़ेगी। आश्चर्य है कि सोनिया को यह बात पिछले दस वर्षों तक क्यों नहीं समझाई गई या उन्होंने समझना नहीं चाहा। जेटली की आलोचना इसलिए भी हो रही है कि अमृतसर के अपने चुनाव अभियान में उन्होंने आयकर छूट सीमा को पांच लाख करने की जरूरत बताते हुए तर्क भी दिया कि इससे बाजार को लाभ होगा लेकिन वे खुद इसे तीस हजार से ज्यादा नहीं बढ़ा पाए। चिदम्बरम ने अपने अंतरिम बजट में यह छूट दो लाख से दो लाख बीस हजार रुपए तक करने की अस्थाई व्यवस्था कर ही दी थी।
दरअसल देश की तमाम आर्थिक नीतियां खासकर 1991 में नरसिम्हाराव के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सरकार के वित्तमंत्री मनमोहनसिंह और उसके बाद की सभी सरकारों ने जो आर्थिक नीतियां लागू की, वे सभी देश को केवल उच्च, उच्च मध्यम और मध्यम वर्ग का ही देश मान कर लाते रहे हैं। गरीब को केवल यहां खैरात का पात्र माना जाता रहा है या अपरोक्ष यह मान लिया गया है कि उसे जीने का हक हासिल नहीं है। इन्हीं आर्थिक नीतियों को भाजपा, वामपंथियों, समाजवादियों आदि के सहयोग से इस दौरान बनी सभी सरकारों ने आगे बढ़ाया। मनमोहनसिंह जो नीतियां लाए और किन्हीं दबावों के चलते उन्हें बेधड़क लागू नहीं कर सके उन सभी को मोदी चरम रूप में लागू करने को उतारु हैं।
मोदी देश को पूरी तरह राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय बाजार के हवाले करने पर तुले हैं जिसमें देश की कुल आबादी का एक-तिहाई हिस्सा जलालत में जीने और मरने के अलावा कुछ हासिल नहीं कर पाएगा।
भारत गांवों का देश है, बड़ा हिस्सा गांवों में बसता है। बजट में रस्म अदायगी के तौर पर गांवों की बात तो की गई है लेकिन असल मंशा शहरों को पोसने की है। चुनावों में सौ नये महानगर बसाने का जो सपना दिखाया था, इस बजट में उसकी घोषणा कर दी गई है- बिना यह योजना बनाए कि देश के कुल छत्तीस प्रदेशों में इनकी संख्या का समान बंटवारा कैसे होगा। चण्डीगढ़, दिल्ली जैसे शहरी प्रदेशों के अलावा अण्डमान निकोबार, गोवा और पांडिचेरि जैसे बहुत छोटे भू-भाग वाले प्रदेशों को इसमें क्या मिलेगा? ऐसे में सौ महानगरों की जिद में राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे बड़े प्रदेशों में क्या दस-दस महानगर बसाए जाएंगे? इसकी जगह तो यदि यह योजना बनती कि प्रत्येक गांव में शिक्षा-चिकित्सा, पानी-बिजली, रोजगार के अवसर विकास की व्यवस्था निर्दोष कर दी जाती तो देश की बड़ी आबादी केवल लाभान्वित होती बल्कि शहरों की इस तरह जरूरत नहीं पड़ती जहां गरीबों को जलालत के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होता। आम आदमी के अच्छे दिन भ्रष्टाचार के समाप्त हुए बिना जाएंगे, संभव नहीं लगता।
मीडिया का भी इस तरह की नीतियों से कोई लेना-देना नहीं क्योंकि गरीब उनके तो पाठक-दर्शक हैं, ही विज्ञापनदाता। कल जब एनडीटीवी इंडिया पर बजट की चर्चा हो रही थी, इस दौरान जदयू नेता, समाजवादी केसी त्यागी ने गांव और गरीब की बात करनी चाही तो एंकर रवीश ने सचाई को इस तंज में बयान कर दिया, जिसका भाव यही था कि गरीब और गांव वाले किसी भी रूप में हमारे (मीडिया के) दाता नहीं हैं तो उनकी बात हम क्यों करें। रवीश के इस तंज में मीडिया का नंगापन जाहिर ही हुआ।

11 जुलाई, 2014

No comments: