Monday, July 21, 2014

अच्छे दिन और सिंघल-तोगडिय़ा के मानी

विश्व हिन्दू परिषद् के अध्यक्ष अशोक सिंघल की चेतावनी के साथ यह बयान कि वे मुसलिम मतों के बिना भी सरकार बना सकते हैं, और उन्हीं के सहयोगी और विहिप नेता प्रवीण तोगडिय़ा का इसके बाद मुसलमानों को आगाह करना कि 2002 का गुजरात याद नहीं है तो हाल का मुजफ्फरनगर तो याद होगा- ये दोनों बयान कहीं 'अच्छे दिनों' के ऐजेन्डे की तो घोषणा नहीं है।
सभी जानते हैं कि विश्व हिन्दू परिषद् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समूह की वैसी ही एक इकाई है जैसी भारतीय जनता पार्टी और अन्य संगठन हैं और यह भी कि संघ की शाखाओं में जाने वालों से मौके-बेमौके यह सुना और समझा जाता है कि मुसलमानों को इस देश में रहने का हक नहीं है फिर भी यदि उन्हें यहां रहना है तो दोयम दर्जें की नागरिकता के साथ रहें। ऐसे ही अन्य बातें संघनिष्ठों से अकसर सुनते आए हैं जिनके परिप्रेक्ष्य में देखें तो सिंघल और तोगडिय़ा के बयान कोई नये नहीं हैं लेकिन नयापन इनके बेधड़क लहजे का है जो अन्यथा ये दबे मुंह कहा करते थे।
बात तोगडिय़ा की करें तो उनके इस कथन का एक दूसरा पक्ष और भी है, वे कहीं इस तरह एक तीर में दो शिकार की मंशा तो नहीं रखते हैं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और प्रवीण तोगडिय़ा के बीच छत्तीस के आंकड़े की जानकारी सभी को है और अल्पसंख्यक समूह के प्रति तोगडिय़ा के तेवर भी किसी से छिपे नहीं हैं। सो कहा जा सकता है इस एक बयान से तोगडिय़ा दो मकसद साध रहे हैं। एक तो यह कि वे अपनी शैली में जहर भी उगल रहे हैं तो दूसरी ओर मोदी जो प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही देश के सर्वमान्य नेता होने का मुखौटा पहनने के प्रयासों में लगे हैं, तोगडिय़ा उनके लिए असहज करने वाली परिस्थितियां पैदा करके मोदी के असल चेहरे को ही बनाए रखना चाह रहे हैं। लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद जब से यह तय हो गया कि मोदी ही देश के प्रधानमंत्री होंगे तब से मोदी लगातार अपनी करनी और कथनी से ये सन्देश देने में जुटे हैं कि उनके लिए देश का प्रत्येक नागरिक समान है। संभवत उन्होंने इसीलिए बोलना बहुत कम कर दिया है, शायद उन्हें लगता है कि ज्यादा बोलने से कोठे वाली होंठें आए बिना नहीं रहेगी।
पिछले वर्ष सितम्बर से, जबसे मोदी ने अपनी पार्टी के चुनाव अभियान की कमान संभाली तभी से 'विनायकÓ मौके-टोके यह बताने से नहीं चूका कि मोदी और उनकी पार्टी जिन आर्थिक और विदेश, खास कर पड़ोसी देशों के साथ कांग्रेसी रवैये की आलोचना करती है उनमें ज्यादा तंत नहीं बल्कि इन्हें जब भी मौका मिलेगा ये कांग्रेस की नीतियों को आगे बढ़ायेंगे। उक्त उल्लेखित सभी मामलों में वर्तमान सरकार ने अपने चाल-चलन से 'विनायक' की बात को पुष्ट ही किया।
खैर, देश के बहु-मतदाताओं ने अपने साथ वह सब करने का अवसर कांग्रेस की जगह भाजपा को दिया है। ऐसे में उसे यह सब भुगतते हुए भाजपा से निराश इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि यह आम-आवाम जिस तरह अपने वास्तविक हितों पर बिना गंभीर हुए कांग्रेस को चुनती आई है, लगभग वैसी ही लापरवाही से उसने भाजपा को चुना है।
चिन्ता दरअसल दूसरी है और गंभीर भी कि संघ यदि इस शासन में अपने असल ऐजेन्डे को लागू करने की अनुकूलता देखता है और उस ओर सक्रियता बढ़ाता है तो यह देश की असल तासीर और मिजाज के प्रति गंभीर खतरा है जिसके संकेत सिंघल, तोगडिय़ा बोलकर और प्रकारान्तर या कहें मौन क्रियान्वयन की मंशा से भाजपा के नये राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह देते आएं हैं। किन्हीं भी कारणों और निहित स्वार्थों से यदि देश में कट्टरपन को बढ़ावा मिलता है तो ऐसे देशों को अपने मनन से गुजार लें कि जहां-जहां कट्टरपन है वहां-वहां चैन और सुकून किस हश्र को प्राप्त है। यदि इस तरह नहीं विचारेंगे तो जो हम बोएंगे उसे काटना हमारी अगली पीढिय़ों की नियति होगा। रही बात 'अच्छे दिनों' की तो ऐसे ही सब चलते और प्रतिष्ठा पाते भ्रष्टाचार के बाद यह एक दु:स्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं है।

21 जुलाई, 2014

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